वेदना (भाग3) Hindi Story by Nidhi Jain
-निधि जैन
पार्थ ने घबराई आवाज में कहा, “तुम घायल हो, वह मजदूर तुम्हें कुछ नहीं बोलेंगे। हो सकता है दया खा कर अस्पताल ही पहुँचा दें।” वह गाड़ी से निकल कर तेज गति से भागने लगा। उसे भागता देख वह दोनों मजदूर भी उसके पीछे दौड़े। गाड़ी को पार करते हुए उन्होंने मेरी तरफ एक नजर भी नहीं डाली। मैं पीड़ा में कराहा उठी। मेरे सीने से खून और आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी पर मेरी तकलीफ सुनने वाला कोई नहीं था। यह वेदना शरीर से ज्यादा मन पर लगे घाव की थी। जिस आदमी को मैंने इतने सालो तक पूर्ण समर्पण से चाहा, उसकी सेवा की, उसके हर सुख-दुख में उसके साथ खड़ी रही, यहाँ तक की कई बार अपने को मुसीबत में डाल कर उसकी ढाल भी बनी, वह आज मुझे ऐसी हालत में मरने के लिए छोड़ कर भाग गया।
ढाल शब्द से मुझे करीब तीन-चार साल पहले की एक घटना याद आ गयी। शाम का समय था, हम दोनों घर के सामने वाले पार्क में टहलने के लिए निकले। हमारे घर से थोड़ी दूरी पर एक पेड़ के नीचे तीन-चार कुत्ते खड़े थे। मैंने पार्थ से कहा, “कुत्तों का झुंड खड़ा है, वापस चलते हैं। मुझे बहुत डर लगता है, कब भड़क जायें।” पार्थ जोर से हँस कर बोले, “तुम भी न कभी-कभी बिलकुल बच्चों जैसी बात करती हो। देखो, कितनी मासूमियत से चुप-चाप खड़े है।” उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और जैसे ही हम पार्क की ओर बढ़े, एक कुत्ता भागता हुआ आया और पार्थ पर झपटा। मैं उस कुत्ते का आक्रामक रूप देख कर घबरा गई। इससे पहले की वह आक्रमण करता मैं उन दोनों के बीच में आ गई। कुत्ते ने मुझे काट लिया। तब तक पार्क का चौकीदार वहाँ आ गया। उसने अपने डंडे से उस कुत्ते को डरा कर भगा दिया। घाव घहरा था और उससे खून भी आ रहा था। पार्थ तुरन्त मुझे पास के नर्सिंग होम ले गये। मुझे ठीक होने में काफी समय लग गया, ऊपर से तकलीफ भी बहुत सहन करनी पड़ी। पार्थ ने प्यार से मेरे गाल पर थपकी देते हुए कहा, “क्या जरूरत थी झाँसी की रानी बनने की। अब झेलो।” मैंने मुसकुरा कर कहा, “मेरी जगह अगर तुम होते तो तुम भी यही करते।” उसने स्पष्ट व कठोर स्वर में कहा, “मैं कभी ऐसा नहीं करता। यह सब कहानी-किस्सों में होता है कि अपनी जान को जोखिम में डाल कर दूसरे को बचाना।” पार्थ की बातें सुन कर मेरे चेहरे का रंग उड़ गया। मुझे गंभीर मुद्रा में देख वह ठहाका लगा कर हँसते हुए बोले, “अपना चेहरा तो देखो, लगता है बस अभी रो पड़ोगी। मैं मजाक कर रहा था। तुम्हारे लिए तो कुछ भी।” मैं अपनी यादों से वापस आयी तो बरबस ही मेरे चेहरे पर मुसकान थी। यह सोच कर कि क्या उस दिन पार्थ मजाक नहीं, अपने चरित्र का सत्य ब्यान कर रहे थे, मेरे चेहरे की मुसकान गायब हो गई।
मैं शारीरिक व मानसिक वेदना से ग्रस्त शांत पड़ी थी। मैंने जीने की पूरी उम्मीद ही छोड़ दी थी। तभी मेरा ध्यान मेरे पर्स पर गया। जो दुर्घटना के दौरान मेरी गोद से फिसल कर मेरे पैरो के पास आ गिरा था। यदि किसी तरह वह पर्स मेरे हाथों में आ जाये तो मैं उसमें रखे मोबाइल का प्रयोग कर के किसी को अपनी मदद के लिए बुला सकती थी। जरा भी हिलने-डुलने से खून का रिसाव व पीड़ा बढ़ रही थी। जिन्दा रहने के लिए यह दर्द तो मुझे सहना ही था। मैं झुक नहीं सकती थी, इसलिए मैंने पर्स की बेल्ट को पैर में फसा कर उठाने की कोशिश की। थोड़े प्रयास के बाद पर्स मेरे हाथों में था। मोबाइल पाते ही मेरे अंदर एक आशा की किरण जाग गई।
मोबाइल पर पापा की दस कौल थीं। मैंने उन्हें नज़र अंदाज कर दिया। पहला नाम जो मेरे दिमाग में आया, वह था मेरे बेटे का। मैंने उसे फोन मिलाया। देर तक घंटी जाती रही पर फोन उठा नहीं। मैं समझ गई कि वह किसी पार्टी में मशगूल होगा। फोन या तो इधर-उधर पड़ा होगा या साइलेंट पर होगा। मैंने एक बार फिर प्रयास किया। मुझे विश्वास था कि बस एक बार उसे खबर मिल जाये कि मैं यहाँ इस हाल में हूँ तो वह सब कुछ छोड़ कर भागा चला आयेगा। लम्बी घंटी के बाद उसने फोन उठाया और इससे पहले कि मैं उससे कुछ कहती, वह गुस्से में झुंझला कर बोला, “मम्मी, कितनी बार कहा है कि जब मैं दोस्तों के साथ हूँ तो फोन मत किया करो, सब मजाक उड़ाते हैं। थोड़ी देर में घर पहुँच जाऊँगा।” मैंने वेदना से भरे स्वर में कहा, “बेटा, मेरा एक्सीडेंट हो गया है। तुम……..” मैं अभी अपनी बात पूरी कर भी नहीं पायी थी कि वह बीच में ही बोल पड़ा, “मम्मी, मुझे घर जल्दी बुलाने का आपने नया तरीका ढूँढ़ा है, पर मैं आप के झाँसें में नहीं आने वाला। वैसे भी आप की नज़रों में तो मैं आज भी बच्चा ही हूँ तो फिर एक बच्चा भला आप की क्या मदद कर पायेगा। आप तो ऐसा करो किसी और को बुला लो।” यह कह कर उसने फोन काट दिया। श्रुत का अपने प्रति ऐसा व्यवहार देख कर मेरा दिल पीड़ा से भर गया।
अभीत ने ठीक ही कहा था, श्रुत मेरे हाथों से निकल गया था। भाई की बात याद आते ही मैंने सोचा कि क्यों न मैं भाई को फोन करके उससे मदद माँगूँ। वह स्वयं नहीं आ सकता पर कुछ न कुछ इंतजाम जरूर कर देगा। अपने किसी दोस्त को ही भेज देगा। अगले ही पल मुझे ख्याल आया कि जिस लड़के ने छोटी उम्र में ही मुझे तकलीफ से बचाने के लिए न जाने कितनी बार मार खायी है, वह मेरा यह हाल सुन कर सब कुछ छोड़ कर खुद ही भागा चला आयेगा। इतने सब्र और इंतजार के बाद उसके जीवन में यह घड़ी आयी है, मैं उससे यह सब छीन नहीं सकती। यह सब सोच कर मैंने पापा को फोन मिलाया। पापा ने झट से फोन उठा लिया। मैंने राहत की साँस ली। मुझे विश्वास था कि वह मेरी मदद जरूर करेंगे। इससे पहले कि मैं उनसे अपनी तकलीफ कहती, हमेशा की तरह वह अपना दुखड़ा ले कर बैठ गये, “द्रौपदी, आज खाना बनाने वाला नहीं आया। उसने फोन कर के भी नहीं बताया। मैं यहाँ भूखा बैठा हूँ। तुम भी मेरा फोन नहीं उठा रही हो। कहाँ हो? जहाँ भी हो तुरंत खाना ले कर आ जाओ।” पापा नशे में धुत्त थे। मैंने अपनी कमजोर पड़ती आवाज में कहा, “पापा, मेरा एक्सीडेंट हो गया है। मैं बहुत कष्ट में हूँ। आप मेरी मदद करो…..” पापा ने मेरी बात को अनसुना करते हुए अपनी व्यथा को जारी रखा, “आते हुए बंसी के यहाँ से दूध की बर्फी लेती आना। बहुत दिन हो गये खाये हुए। आज अचानक उसका स्वाद मुहँ में आ गया। कुछ रुपये भी ले आना। मुझे अपने लिए एक नई कमीज बनवानी है। जो तुम्हारा भाई दे गया है वह मुझे पसंद नहीं….” मैं पापा-पापा करती रही और वह अपनी ही कहानी में लगे रहे। हार कर मैंने फोन काट दिया। पापा कितने बदल गये थे। अब उन्हें अपने अलावा कुछ नहीं सूझता था। जब माँ ने कहा था कि इन्हें इनके हाल पर ही छोड़ देना, सुन कर बुरा लगा था। मैं पापा से बहुत प्यार करती थी पर आज समझ सकती हूँ कि माँ ने ऐसा क्यों कहा था।
मैंने बड़ी उम्मीद से अपने ससुराल वालों को फोन मिलाने का सोचा। भले ही दूरी ज्यादा थी पर दिल तो करीब थे। मैं वहाँ सब की प्रिय थी और सासु माँ की लाडली। जब से मैंने उस परिवार को बेटा दिया था तब से उस घर में मेरा विशेष स्थान हो गया था। मैंने बड़े भय्या को फोन मिलाया। उनका फोन बंद आ रहा था। बड़े भय्या का फोन नब्बे प्रतिशत बंद ही आता है। उन्होंने कहीं पढ़ा था कि फोन की बैटरी पच्चीस प्रतिशत से कम होने पर ही चार्ज करनी चाहिए। इससे बैटरी की उम्र बढ़ती है। तभी से वह इस बात पर दृढ़ थे। उनके द्वारा तय सीमा पार भी हो जाती और वह फोन चार्ज करना ही भूल जाते। अक्सर उनका फोन इसी प्रकार बंद हो जाता। भाभी नाराज भी होतीं, “कभी कोई परेशानी में आप को सम्पर्क करना चाहे तो कैसे करें?” इस पर उनका तर्क होता, “जैसे मोबाइल आने से पहले होता था।” मैं समझ गई थी कि अब जल्द उनसे सम्पर्क नहीं हो पायेगा। छोटे भय्या-भाभी घूमने के लिए मलेशिया गये हुए थे, इसलिए उन्हें फोन करने का कोई फायदा नहीं था। मैं संकोच वश घर के फोन पर मिलाना नहीं चाहती थी। इसका कारण यह था कि घर पर लगा फोन हमेशा पिताजी ही उठाते थे। वह दिन भर फोन के पास रखी अपनी आराम कुर्सी पर बैठ अखबार या कोई किताब पढ़ते रहते थे। इस उम्र में मेरी ऐसी हालत और बेटे के हाथों एक लड़के की मृत्यु का सुन कर वह अपने आप को संभाल नहीं पायेंगे। यही सब सोच कर मैंने घर पर फोन करने का विचार त्याग दिया।
मेरे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था, इसलिए मजबूर हो कर मैंने भाई को फोन मिलाया। भाई का नम्बर व्यस्त आ रहा था। मैं निराश हो गई। वह ही अब मेरी एक मात्र उम्मीद था। तभी फोन पर घंटी बज उठी। भाई का फोन था। मैंने फोन उठाते ही अपनी मंद आवाज में कहा, “अभीत, मेरा एक्सीडेंट हो गया है। मैं बहुत ही गंभीर स्थिति में हूँ। मेरी मदद करो।” उसने परेशान होते हुए कहा, “दीदी, घबराओ नहीं। हिम्मत से काम लो। आप तो बहुत बहादुर हो। किसी को फोन कर के बुला लो। मैं तो वैसे भी हवाई जहाज में बैठ चुका हूँ। फोन बन्द करने का समय हो गया है, नहीं तो मैं ही किसी को फोन करके तुम्हारी मदद के लिए भेज देता। तुम्हें अपनी सहायता स्वयं ही करनी होगी। मेरी प्यारी बहन, समझने की कोशिश करो, यह मौका मुझे बहुत मुश्किल से मिला है। इसे यूँ ही नहीं जाने दे सकता। तुम्हारी मदद तो कोई भी दूसरा व्यक्ति कर देगा, पर मुझे दूसरा मौका शायद नहीं मिलेगा। फोन रखता हूँ दी, अपना ध्यान रखना।” मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा, “अभीत, तू ही मेरी आखिरी उम्मीद है।” इससे पहले मैं उससे कुछ और कहती, पीछे से किसी महिला ने अंग्रेजी में कहा, “सर, कृपया फोन बंद कर दें।” और फोन कट गया। मैं फूट-फूट कर रो पड़ी। जीवन भर मैं जिन रिश्तों को संभालती रही और इस विश्वास के साथ जीती रही कि जरूरत में यह मेरे साथ होंगे, उन सब ने आज मेरा विश्वास तोड़ दिया था।
माँ का एकाकीपन मुझे हमेशा डराता था, शायद इसीलिए मैं इन लोगों पर इतनी निर्भर थी। मैंने माँ को हमेशा जीवन में अकेले ही संघर्ष करते देखा था। उनके मायके व ससुराल, दोनों ही पक्ष के लोगों ने, पापा की आदतों के कारण माँ से रिश्ता खत्म कर लिया था। सभी को डर था कि कही माँ उनसे कोई मदद न माँग ले। वह एक स्वाभिमानी औरत थीं। उन्होंने रिश्ता तोड़ा तो माँ ने भी उन्हें छोड़ा। जीवन के आखिरी पल तक वह बेसहारा ही रहीं, फिर चाहे वह आर्थिक स्थिति हो, उनकी बीमारी या पापा के अत्याचार। हमेशा से सुनती आई थी कि एक महिला को सदैव किसी न किसी पुरुष के सहारे की जरूरत होती है, फिर चाहे वह उसका पिता, भाई, दोस्त, पति या पुत्र कोई भी हो। समाज के बनाये इन नियमों से मैं भी अछूती नहीं थी। इन नियमों और माँ के अकेलेपन के कारण ही मैं जीवनपर्यन्त अपना सहारा इन्हीं लोगों में ढूंढती रही। मैं द्रौपदी, जिसका जीवन पाँच बहुत ही महत्वपूर्ण पुरुषों से घिरा था, आज एक सहारे के लिए तरसती हुई अपनी अंतिम साँसें गिन रही हूँ।
मैं अर्धमूर्च्छित अवस्था में पड़ी थी। खून का रिसाव तो पहले ही बंद हो गया था पर जरा भी हिलने पर दुबारा थोड़ा-थोड़ा खून रिसने लगता और पीड़ा इतनी तीव्र उठती की मुँह से चीख निकल जाती। रात के सन्नाटे में इस सुनसान सड़क पर कोई मेरी इस पुकार को सुनने वाला नहीं था। दो-तीन गाड़ियाँ पास से गुजरी भी पर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। जब अपनों ने ही मुँह फेर लिया तो अनजानों से कैसी शिकायत। पार्थ भी जिद्द करके इस सड़क से ले आये। यदि मुख्य मार्ग से चलते तो शायद यह हादसा ही नहीं होता और यदि हो भी जाता तो अब तक कोई न कोई मदद मिल ही जाती। उनको तो बस तेज गति की लगी थी। हमेशा अपने मन की ही करते हैं, किसी दूसरे की सुनते ही कहाँ है। अब न जाने कहाँ भटक रहे होंगे। वह मुझे ऐसी हालत में छोड़ कर चले गये, फिर भी मेरा मन उनकी ही चिन्ता कर रहा था। मुँह सूख रहा था। पानी की बोतल लुढ़क कर दूर चली गई थी। लगता है पानी की दो बूँद के लिए तरसती, इस वीरान सड़क पर, अपनों से दूर, तन्हा, असहाय ही इस दुनिया से चली जाऊँगी। मैंने तो कोई बुरे काम नहीं किए। हमेशा सब के साथ अच्छा किया और अच्छा सोचा, फिर मुझे क्यों ऐसी मौत नसीब हो रही है। यही सब सोचते-सोचते न जाने कब मैं बेहोश हो गई।
मैं बेहोश पड़ी थी कि अचानक ऐसा लगा जैसे माँ ने मुझे जोर से हिला कर गहरी नींद से जगा दिया हो, जैसा कि वह हमेशा करती थीं। प्यार से मेरे माथे पर हाथ फिराते हुए बोलीं, “तू यह कैसे भूल सकती है कि तेरा नाम द्रौपदी है, जो किसी भी परिस्थिति में हार नहीं मान सकती। जब हस्तिनापुर के दरबार में खड़ी उस द्रौपदी की किसी ने नहीं सुनी, तब उसने सच्चे मन से अपने सखा को याद किया था और उसके मित्र ने ही उसकी मदद की थी। तू भी अपने बंधु से सहायता माँग। वह जरूर तेरी मदद करेगा।” मैंने बेहोशी की हालत में माँ से कहा, “माँ, मेरे अपने जो मुझसे चन्द किलोमीटर की दूरी पर हैं, ने अपनी-अपनी मजबूरी बता कर हाथ झटक लिया है। हजारों किलोमीटर दूर बैठा मेरा दोस्त क्या कर पायेगा। मेरा पति, जो मेरे जीवन में मेरे सबसे करीब और हादसे के समय सबसे नजदीक था। जब वह ही हाथ छुड़ा कर चला गया तो इतनी दूर बैठे अपने उस साथी से कैसे उम्मीद रखूँ। वैसे भी वह इस समय अस्पताल में होगा। किसी भी समय उसके घर खुशियाँ दस्तक दे सकती हैं। बड़ी मुश्किल से उनके जीवन में यह पल आया है।”
माँ ने एक बार फिर मुझे झकझोर दिया था। अबकी बार कुछ तेज स्वर में बोली, “तुझे क्या लगता है, देवकीनंदन उसी राज्य सभा में उपस्थिति थे। वह भी तो द्रौपदी से सैकड़ों मील दूर थे। द्रौपदी के अपनों ने भी उसकी गुहार नहीं सुनी थी।” मैंने बेहोशी में बड़बड़ाते हुए कहा, “माँ, वह थे दिव्य शक्ति के मालिक और मेरा दोस्त एक साधारण पुरुष।” माँ ने मेरा हौसला बढ़ाने के लिए पूरे जोश से कहा, “द्रौपदी, उठ और अपने दोस्त से मदद माँग। वह ही तेरा जीवन बचायेगा। कृष्णा उसकी सहायता करेंगे।” माँ की बाते सुन कर जैसे मैं बेहोशी से जाग गई थी। मैंने तुरंत वासु को फोन लगाया। लम्बी घंटी के बाद फोन कट गया। एक बार फिर निराशा ही हाथ लगी थी। मैंने मायूस हो कर आँखें बंद कर ली। ईश्वर ने मुझे रिश्ते तो सभी दिए, पर जरूरत के समय सब ने ही आँखें फेर ली थीं। पति को मेरे से ज्यादा अपनी जान की परवाह थी। बेटे ने तो मेरी पूरी बात तक नहीं सुनी। उसे मुझसे ज्यादा दोस्त और पार्टियाँ प्यारी है। भाई ने भी अपनी मजबूरी व्यक्त कर दी, उसकी जिन्दगी में मुझसे ज्यादा महत्वपूर्ण उसका कैरियर है। पापा की तो बात ही निराली है। उन्हें अपने अलावा कुछ और नहीं सूझता। बेटी से ज्यादा जरूरी उनके लिए खाना, मिठाई और नई कमीज है।
एकाएक फोन की घंटी बज उठी। वासु का फोन था। मेरे फोन उठाते ही वह उत्साहित हो कर बोला, “बेटी हुई है। बिलकुल परी जैसी है। इसीलिए फोन किया था न? तुम से भी न, सब्र नहीं हुआ, कहा था मैं खुद ही फोन करूँगा। माँ-बेटी दोनों ठीक हैं। मैं बहुत खुश हूँ।” मैंने हिम्मत कर के अपनी कमजोर आवाज में कहा, “तुम दोनों को बधाई” उसने घबरा कर पूछा, “क्या हुआ? आवाज इतनी बुझी हुई क्यों हैं? तबीयत सही है?” मैं फफक पड़ी। मैंने साहस जुटा कर उसे पूरी बात क्रमबध्द बता दी, एक्सीडेंट और फिर पार्थ, श्रुत, अभीत और पापा की प्रतिक्रिया। मुझे नहीं पता यह सब कहते-कहते मैं कब बेहोश हो गई। वह कितना सुन पाया और मैं कितना कह पायी।
मैं बेहोशी की हालत में थी। दूर कहीं एम्बुलेंस की आवाज आ रही थी। साथ ही कुछ और गाड़ियों के आवागमन की भी। फिर आवाज़ें तेज हो गई। लोगों की आपस में बात-चीत और शोर-गुल मुझे सुनाई दे रहा था पर मेरी आँखें बंद थी। कुछ समझ नहीं आ रहा था। मशीन चलने की आवाज आ रही थी। वह लोग छड़ को काटने का प्रयास कर रहे थे। मैं दर्द में थी। किसी ने मेरे पास आ कर कहा, “मैं मुरली, वासु का दोस्त, यहाँ पर डी.आई.जी हूँ। उसने फोन पर आपके एक्सिटेंट के बारे में बताया। आप परेशान न हों। जल्द ही हम आप को अस्पताल ले जायेंगे। आप ठीक हो जायेंगी। वासु ने बताया आप बहुत हिम्मती हैं। बस थोड़ी और हिम्मत रखें।” वह लगातार बोल रहा था। मैं कुछ सुन पा रही थी और कुछ नहीं, पर इतना समझ पा रही थी कि माँ ने सही कहा था, आखिर मेरे मित्र ने ही इतनी दूर हो कर भी मेरी मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाया था। जैसे उस द्वापर में द्रौपदी की रक्षा उसके सखा कृष्णा ने की थी वैसे ही आज मेरे मित्र ने मेरी की है। संयोगवश मेरी मदद करने वाले दोनों ही व्यक्ति कृष्णा के समानार्थी थे।
लोहे की सलाख और गाड़ी का कुछ हिस्सा काट कर मुझे सावधानी पूर्वक गाड़ी से बाहर निकाल कर एम्बुलेंस में पहुँचा दिया गया। छड़ अभी भी मेरे सीने के आर-पार थी। उसे अस्पताल का कोई बड़ा सर्जन ही मेरे शरीर से अलग करेगा। एम्बुलेंस में मेरी प्राथमिक चिकित्सा शुरू कर दी गई। वासु का दोस्त मेरे साथ ही था। वह मेरे लिए वैसे ही परेशान था जैसे की वासु होता था। कभी-कभी कुछ अंजान लोग आप के लिए वह कर जाते हैं, जो आप के अपने भी नहीं करते। वह बार-बार मेरी हिम्मत बढ़ा रहा था। तभी उसका फोन बज उठा। वासु का फोन था। उसने मेरे बारे में वासु को बताया और फोन स्पीकर पर कर दिया। मैं बेहोशी में थी पर वासु को सुन सकती थी। उसने बड़े प्यार से कहा, “हिम्मत मत हारना। मैं हूँ न, कुछ नहीं होने दूँगा। पहली उड़ान से भारत आ रहा हूँ।” मुझे विश्वास हो गया था कि वह मुझे बचा लेगा, मुझे कुछ नहीं होने देगा। एम्बुलेंस तेजी से सड़क पर दौड़ रही थी और मेरे अंदर जीने की एक नई उमंग जाग रही थी। धीरे-धीरे समय के साथ मेरे शरीर की पीड़ा समाप्त हो जायेगी पर शायद मेरे मन की वेदना कभी शांत न हो……
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मैंने गणित में एम.एस.सी एवं कम्पयूटर कोर्स किया और कुछ समय तक एक साँफ्टवेयर प्रोग्रामर की तरह कार्यरत रही। मैं पिछले पाँच सालों से कहानियाँ व लेख लिख रही हूँ। मेरी दो किताबें, एक नई सुबह (10 लघु कहानियों का संग्रह) और बोझ (एक लघु उपन्यास) प्रकाशित हो चुकी हैं। दोनों ही किताबें Amazon व Flipkart पर उपलब्ध हैं। कुछ कहानियाँ और लेख आँन लाइन व पत्रिकाओं में भी छपी हैं। लगभग एक साल से मैं इस वेब साइट से जुड़ी हुई हूँ और मेरी कई कहानियाँ यहाँ छपी हैं। आप सभी से प्रोत्साहन की आशा करती हूँ।
Excellent story .I was waiting for the third &last part of the VEDNA .Sakha ‘s role is very important in our life either shri Krishna or friend .
दोस्ती के रिश्ते को पहले से ही अहम मानती रही हूं…अब इस कहानी को पढ़कर तो और भी कायल हो गई हूं इस दूर के से पर दिल के बहुत पास के रिश्ते की….
Excellent story. Motivation and stree ki shakti 👌
Very interesting and emotional story , throughout reading curiosity remains