‘ग्लानि’ Hindi Story

“साल्ट प्लीज़” झुंझला कर, तेज स्वर में अमर ने मुझ से कहा। शायद वह पहले भी कह चुका था पर मैं अपने ही ख्यालों में डूबी थी। अमर बहुत ही शांत स्वभाव का व्यक्ति था। वह आसानी से तेज स्वर में या झुंझला कर बात नहीं करता था। वैसे तो वह अब बात ही कहाँ करता था। जब से कृश हमारी जिन्दगी से चला गया तब से ही अमर ने एक चुप्पी सी साथ ली थी। वह मुझे ही इस सब का जिम्मेदार मानता था। उसने शब्दों से कभी नहीं कहा पर मैं उसके चेहरे के भाव, उसकी आँखें पढ़ सकती थी। दो साल हो गये हमारे बीच बिल्कुल बात-चीत बन्द थी। मैं तो आज भी इसी इंतजार में हूँ कि हमारे बीच सब कुछ पहले जैसा हो जाये। 

मैं और अमर एक ही आँफिस में काम करते थे। मैं कंपनी में छ: महीने  पहले ही आयी थी और वह पिछले दो साल से यहाँ पर था। ट्रेनिंग पूरी होते ही मुझे अमर की टीम में भेज दिया गया। वह हमारा टीम लीडर था। हमें एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट पर काम करना था। काम बहुत ज्यादा था और दिन कम। हम सब पूरी तरह व्यस्त हो गये थे। अमर अपनी पूरी टीम को उत्साहित करने के साथ-साथ उनकी समस्याओं को भी सुनता और उनका कुछ न कुछ समाधान भी निकालता फिर चाहे वह व्यक्तिगत हो या आँफिस की। वह सभी के बीच सामंजस्य  बना कर चलता। दूसरों की मदद करने के लिए कई बार वह अपने आप को भी परेशानी में डाल लेता। अमर हँसी-मजाक करने वाला एक खुश दिल इंसान था। इतने तनाव भरे माहौल में भी उसके चुटकुले वातावरण को हल्का कर देते। उसकी इसी अदा पर मैं मर मिटी थी। मैं मन ही मन उसको पसंद करने लगी थी। वैसे तो टीम का हर सदस्य उसका प्रशंसक था।

Best Love Story in Hindi

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आखिर वह घड़ी भी आ गयी जब हमारा प्रोजेक्ट समय से पूरा हो गया। कंपनी के सी.ई.ओ. ने अमर को अपने कमरे में बुला कर बधाई दी। अमर ने अनुरोध करते हुए कहा, “यदि आप इजाजत दें तो मैं अपनी पूरी टीम को यहाँ बुलाना चाहूँगा। इस काम को समाप्त करने में सभी का योगदान है। वह सभी बधाई के पात्र हैं। आप से मिल कर उनका हौसला बढ़ेगा।” सी.ई.ओ. ने हम सब को बुला कर बधाई दी और प्रोत्साहन स्वरूप कुछ धन राशि व पार्टी की घोषणा की। उन्होंने हमको यह भी बताया कि हम में से कुछ लोगों को अब दूसरी टीम में भेजा जायेगा जिसकी सूचना कल सुबह दी जायेंगी। यह सुन कर हम सब के चेहरे उतर गये। हममें से कोई भी दूसरी टीम में नहीं जाना चाहता था। पिछले दो महीनों से लगातार कई-कई घंटे साथ गुजरने से हमारे बीच अच्छा ताल-मेल बैठ गया था और इसका पूरा श्रेय अमर को जाता था। 

पार्टी के दौरान मैं कोने वाली मेज पर खामोश बैठी थी। सभी लोग नाचने-गाने मस्ती करने में व्यस्त थे। किसी का भी ध्यान मेरी तरफ नहीं था। पता नहीं क्यों एक बेचैनी सी थी। शायद टीम से अलग होने की या फिर अमर से…। सब के बीच अमर कहीं नजर नहीं आ रहा था। सी.ई.ओ. के कमरे से निकलने के बाद से ही वह कहीं दिखाई नहीं दिया था। मैं अपने ही विचारों में खोई थी कि पीछे से अमर ने आवाज दी, “यहाँ अकेले क्यों बैठी हो? सब के साथ मस्ती करो। कल से फिर काम में जुटना होगा।” मैंने उसको देख कर एक फीकी सी मुस्कान दी। उसने आश्चर्य से पूछा, “क्या हुआ?” मैंने बुझी आवाज में कहा, “कल से सब अलग-अलग हो जायेंगे” उसने मेरी ओर देखते हुए कहा “बाकी सब का तो पता नहीं पर तुम चाहो तो हम हमेशा के लिए साथ हो सकते हैं।” मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। उसने जेब में से एक छोटी सी डिब्बी निकाल कर मेज पर रख दी और मुसकुरा कर बोला, “मैं जानता हूँ तुम भी मुझे पसंद करती हो। मुझसे शादी करोगी?” मैंने बिना समय गवाये हाँ कर दी।

जल्द ही हमारी शादी हो गयी। माँ-पापा अमर जैसा दमाद पा कर खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। आँफिस हो या घर मैं और अमर हमेशा साथ होते। अमर हर प्रोजेक्ट में मुझे अपने साथ रखता। वरिष्ठ अधिकारियों को भी कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि हम दोनों ही अपने काम के प्रति पूरे ईमानदार थे। जिन्दगी खुशियों से भर गयी थी। हर दिन हमारे जीवन का किसी उत्सव से कम न था। तीन साल कहाँ बीत गये पता ही नहीं चला और फिर कृश हमारी जिन्दगी में आ गया। कृश के आते ही मैंने नौकरी छोड़ दी। मैं पूर्ण समर्पण के साथ माँ का दायित्व निभाना चाहती थी। अमर की तरफ से मुझे निर्णय लेने की पूरी छूट थी। उसका वेतन अच्छा था इसलिए हम पर कोई आर्थिक दबाव भी नहीं था।  

हँस्ते-खेलते वक्त तेजी से गुजर रहा था। कृश तीन सील का हो गया। इन तीन सालों में वह सिर्फ मेरी ही नहीं अमर की भी कमजोरी बन गया। आफिस से आने के बाद अमर अपना पूरा समय कृश और मुझे ही देता।

एक दिन मैं और कृश कुछ सामान खरीदने के लिए बाजार गये। वहाँ पहुँच कर वह अपनी पसंदीदा दुकान पर आइस-क्रीम खाने की जिद्द करने लगा। मैंने उसको समझाया, “शाम को पापा के साथ चलेंगे। वह दुकान यहाँ से बहुत दूर है।” हमेशा की तरह मुझे उसकी जिद्द के आगे झुकना पड़ा। मैं और अमर दोनों ही जानते थे कि कृश की हर बात मान कर हम गलत कर रहे हैं, पर फिर भी हम उसकी मासूमियत के आगे हार जाते थे।

माँल में एस्कलेटर से हम चौथी मंजिल पर स्थिति आइसक्रीम पार्लर पहुँच गये। वहाँ लगभग सभी सीटें भरी थी। हम दरवाजे के पास वाली सीट पर बैठ गये। मैंने कृश को उसके पसंद की आइसक्रीम ला कर दी। वह खुश हो कर खाने लगा। तभी मेरी नजर सामने से जाती मेरी दोस्त अंजू पर पड़ी। मैंने कृश से कहा,  “बेटा, आप अपनी आइसक्रीम खाओ। माँ अभी आती है। आप कहीं जाना नहीं।” यह कहते हुए मैं जल्दी से बाहर निकल गई। तब तक अंजू काफी आगे चली गई थी। मैं बड़े-बड़े कदम भरते हुए उसके पास पहुँच गई। हम एक दूसरे से एक लम्बे समय के बाद मिले थे। हमारे उत्साह की कोई सीमा न रही। हम बातों में मशगूल हो गये। अचानक मुझे कृश का ध्यान आया और मैं भागती हुई पार्लर पहुँची। कृश वहाँ नहीं था। मैंने चारों ओर गर्दन घुमाई पर वह कहीं नहीं था। तभी मैंने देखा की चारों तरफ एक भगदड़ सी मच गई है। कुछ लोग कह रहे थे, “पता नहीं किसका बच्चा है?” मैं तेजी से बाहर गई और भीड़ को चीरते हुए मैंने नीचे झाँका। एस्कलेटर बन्द था और बीच में कृश घायल अवस्था में पड़ा था। मैं भाग कर उसके पास गई और खून से लथपथ कृश को अपनी गोद में उठा कर कृश-कृश चिल्लाने लगी। तभी अंजू भी वहाँ आ गयी और उसने हम दोनों को संभालते हुए कहा, “जल्दी से पास वाले अस्पताल चलते है।” मैंने रास्ते से अमर को फोन मिलाया पर मैं कृश-कृश के अलावा कुछ भी बोल नहीं पायी। अंजू ने फोन मेरे हाथ से लेते हुए अमर से कहा, “कृश को चोट लगी है। हम उसको माँल के पास वाले अस्पताल ले जा रहे है।”

कृश को गोद में लिए, मैं दौडती हुई अस्पताल में दाखिल हुई। सामने ही एक जूनियर डाक्टर खड़ा था। मैंने चिल्ला कर कहा, “हैल्प मी!” कृश को इस हालत में देख कर वह मुझसे बोला, “आप मेरे साथ आयें।” हम तेजी से ओ.टी. की ओर चल दिए। अचानक मैं वहीं थम गई। डाक्टर ने आवाज देते हुए कहा “मैम, जल्दी करें। हर पल कीमती हैं।” वह पलट कर मेरे पास आया और कृश को मुझसे लेने की कोशिश करने लगा। मैंने कृश को सीने से चिपका लिया। तब तक अंजू और अमर भी वहाँ आ गये। मेरे चेहरे के भाव देख कर डाक्टर ने कृश की नब्ज़ व आँखों की जाँच की और फिर उसने वही कहा जो मैं खुद  जान चुकी थी। कृश हमें छोड़ कर हमेशा के लिए जा चुका था। अमर को देख कर मैं उसके सीने से लग कर रोने लगी। वह एक बुत की तरह खड़ा रहा। वह दिन था और आज का, वह एक बुत ही बन गया था।

उस दिन से अमर और मेरे बीच एक खाई बन गई। मैंने अनगिनत बार उससे बात करने की कोशिश की, उससे माँफी माँगी, उससे कहा “अमर, मुझे डाँटो, गुस्सा करो पर खामोश मत रहो।” उसकी खामोशी मेरे लिए कृश की मौत से भी ज्यादा दर्दनाक थी। आफिस में भी वह ऐसे ही शांत हो गया था। उसने सभी से हँसना-बोलना बन्द कर दिया। घर पर पूरे वक्त चुपचाप अपने कमरे में बैठा रहता था। पहले उसे किताब पढ़ने और टी.वी. पर मैच देखने का शौक था, पर अब तो वह सब भी बन्द हो गया था। मैंने कई बार उसकी पसंद की किताबें कमरे में ले जा कर रखी, पर उसने उनकी तरफ एक निगाह भी नहीं डाली। हमेशा हँसने-हँसाने वाला मिलनसार व्यक्ति आज मुसकुराना भूल चुका था। जो इंसान दूसरों की मदद के लिए हमेशा आगे आता था, आज वह किसी को भी अपनी मदद नहीं करने दे रहा था। मैं जब भी उससे बात करने या उसके करीब आने की कोशिश करती तो वह करवट बदल कर सो जाता या उठ कर बाथरूम में चला जाता। जब वह बाहर निकलता तो उसकी आँखें लाल होती। मैंने कई बार उसको डाक्टर के पास चलने को कहा पर वह कभी तैयार नहीं हुआ। मैंने स्वयं जाकर डाक्टर से बात की तो उनका कहना था,  “बहुत बड़ा दुख है। समय के साथ सब ठीक हो जायेगा।” मैंने आँखों में आँसू भर कर उनसे कहा, “क्या मेरा कोई दुख नहीं?  मेरी लापरवाही से मेरे बेटे ने, मेरी ही गोद में दम तोड़ दिया। वह दृश्य हर समय मेरी आँखों के सामने रहता है पर फिर भी मैं जी रही हूँ। अपने दोनों के जीवन को सामान्य बनाने की कोशिश कर रही हूँ पर कुछ सहयोग तो अमर को भी देना होगा। डाक्टर ने मेरी तकलीफ समझते हुए कहा, “हर किसी की दर्द सहने की सीमा अलग-अलग होती है। समय के साथ सब ठीक हो जायेगा।”

कृश को गये एक साल बीत गया। जहाँ समय पंख लगा कर उड़ जाता था वहाँ यह साल बहुत लम्बा था। कृश की बरसी पर मैंने अनाथ आश्रम जाकर बच्चों के साथ पूरा दिन बिताया। वहाँ कपड़ों और किताबों के साथ उसकी मनपसंद मिठाई का वितरण किया।  कृश के नाम पर वहाँ एक आम का पेड़ भी लगाया। उसको आम बहुत पसंद थे। मुझे लगा जैसे-जैसे यह पेड़ बड़ा होगा मुझे कृश के बड़े होने का अहसास होगा और जब हमारी उम्र ढलने लगेगी तब मैं और अमर इसकी छाँव में आकर बैठा करेंगे। अमर ने आश्रम जाने से साफ मना कर दिया था। वह तो बस एक ही जगह पर ठहर गया था। मरने वाले के साथ मरा नहीं जा सकता। उसकी यादों को एक नया स्वरूप दिया जा सकता है, पर अमर कुछ भी करने को तैयार नहीं था। मैंने भी हार मान ली थी और सब कुछ वक्त पर छोड़ दिया था। 

समय के साथ हम अकेले पड़ते जा रहे थे। माँ-पापा के लिए यह सदमा बहुत बड़ा था। उनसे कोई उम्मीद रखना ही गलत था। बाकी दोस्त और रिश्तेदार कुछ दिन अपनी संवेदना दिखा कर अपनी-अपनी जिन्दगी में व्यस्त हो गये। दोष उनका भी न था, अमर की बेरुखी ने उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर दिया था। मैं बहुत अकेली पड़ गयी थी। दिन भर कृश के अलबम व विडियो देखती रहती। मन करता कहीं से जा कर उसको ले आऊँ। उसे सीने से लगा कर खूब प्यार करूं और फिर कभी एक पल के लिए भी उसे अपनी आँखों से ओझल न होने दूँ। दुख के साथ-साथ ग्लानि में जीना बहुत मुश्किल होता है। कृश की मौत और अमर की खामोशी मेरा दम घोट रही थी। 

कृश को गये एक और साल बीत गया। इस बीच कुछ भी नहीं बदला। वक्त के साथ मुझे अकेले रहने की आदत हो गयी थी। कुछ लोग हम से नज़रें चुराते थे और कुछ के बेतुके सवालों से बचने के लिए हम उनसे। कुछ दिनों पहले हमारी मंज़िल के दूसरे फ्लैट में लगभग हमारी ही उम्र का व्यक्ति रहने के लिए आया। आते-जाते वह कई बार टकराया पर अभिवादन से ज्यादा कुछ बात नहीं हुई। वह हमेशा जल्दी में होता और मेरी भी अब किसी से बात करने की आदत नहीं रही। एक शाम घंटी बजी तो मैंने यह सोच कर दरवाजा खोला कि अमर होंगे। बाहर नये पड़ोसी खड़े थे और उनके माथे से खून टपक रहा था। खून देख कर मैं व्याकुल हो उठी। कृश का खून से लथपथ शरीर मेरी आँखों के सामने घूमने लगा। उसने मुझे जोर से आवाज देते हुए कहा, “आप ठीक तो हैं? मैं बस बैंड-एड लेने आया था।” “आप अंदर आइये” कह कर मैं रसोई में चली गई। कुछ देर तक फ्रिज खोले खड़ी रही। दिमाग काम नहीं कर रहा था। तभी उसने आवाज दी, “मैम, रहने दें मैं कुछ और कर लेता हूँ।” मैंने फ्रिज से बर्फ निकाल कर उसे देते हुए कहा, “आप थोड़ी देर इसे लगायें। मैं बैंड-एड ले कर आती हूँ।” जब मैं वापस आयी तो वह हमारे परिवार की तस्वीर देख रहा था। मुझे देख कर उसने कृश की ओर इशारा करते हुए पूछा, “आपका बेटा? कभी आते-जाते दिखा नहीं?” मैंने बैंड-एड उसकी ओर बढ़ा दी। उसने तस्वीर की तरफ उंगली करते हुए कहा, “परफैक्ट फैमली” मैं निशब्द खड़ी थी। परफैक्ट जैसा अब कुछ भी नहीं बचा था। ऐसा लगता था जैसे हमारे हँसते-खेलते परिवार को किसी की बुरी नजर लग गयी थी। वह धन्यवाद कह कर निकल ही रहा था कि दरवाजे पर उसकी मुलाकात अमर से हो गई। उसने हाथ आगे बढ़ाते हुए पूरी गर्म जोशी से कहा, “अभिनंदन, आपका नया पड़ोसी।” अमर ने हाथ मिलाते हुए बुझी आवाज में कहा “अमर” और अंदर चला गया। मैंने भी उसके बाहर जाते ही दरवाजा बंद कर लिया। कृश के जाने के बाद से पहली बार मैंने इतना खून देखा था। मैं अपने आप में नहीं थी। वहीं कुर्सी पर बैठ गई। मेरी आँखों के सामने वह पूरी घटना बार-बार घूम रही थी। 

अचानक मेरी नजर घड़ी पर पड़ी, आठ बज गया था। आज मैंने अमर को चाय को लिए भी नहीं पूछा। मैंने जाकर कमरे की लाइट जला दी। अमर एक बच्चे की तरह, दोनों घुटने मोड़ कर, अपने आप में पूरा सिमट कर लेटा था। वह जब भी ज्यादा परेशान होता इसी तरह लेटता। मैं उसके पास बैठ गई। वह अपने आप में और सिमट गया। मैंने धीरे से कहा, “उनके चोट लग गयी थी तो बैंड-एड माँगने आये थे। अभी कुछ दिन पहले ही आये हैं। अभी तो अकेले ही हैं, शायद परिवार बाद में आये।” अमर को मेरी बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसने आँखें बंद कर ली। “खाना लगा रही हूँ। आ जाओ” कह कर मैं कमरे के बाहर आ गई। 

रात बहुत देर तक नींद नहीं आयी। दिल में एक गुबार भरा था। एक घुटन सी महसूस हो रही थी। सब कुछ आँखों के रास्ते निकल जाता तो शायद कुछ हल्का महसूस करती पर आँसू तो जैसे सूख चुके थे। कभी-कभी मन करता अमर के सीने से लग कर जी भर कर रो लूँ, वह भी अपना जी हल्का कर ले पर सीने से लगना तो दूर वह तो पास भी नहीं बैठने देता। आज शाम की घटना को जब मैंने अपने मन में दोहराया तो मुझे महसूस हुआ कि मैंने और अमर दोनों ने ही अभिनंदन के साथ उचित व्यवहार नहीं किया। उसे तो हमारी मन:स्थिति के बारे में कुछ भी पता नहीं। 

अमर के जाते ही मैंने अभिनंदन के घर की घंटी बजाई। उसने अलसाई आँखों से दरवाजा खोला। “माफ कीजियेगा, शायद मैंने आप को जगा दिया।” मैंने शर्मिंदा होते हुए कहा। उसने मुसकुरा कर कहा, “आप पहले अंदर आयें।” मैंने वहीं दरवाजे पर खड़े-खड़े कहा,  “मैं बस आपका हाल पूछने आयी थी।” उसने मुसकुरा कर कहा, “अब ठीक हूँ। दरअसल कल रात में बुखार आ गया था और चोट में दर्द भी काफी था इसलिए रात ठीक से नींद नहीं आयी।” “आप एक बार किसी डाक्टर को दिखा लें।” कह कर मैं वापस आने के लिए पलटी तो उसने कहा, “एक-एक काँफी हो जाये।” “फिर कभी” कह कर मैं तेजी से वहाँ से चली आयी। कुछ था जो मुझे असहज कर रहा था। शायद उसका हर बात पर मुसकुराना….

शाम को अभिनंदन के दरवाजे पर आहट हुई तो मैंने दरवाजा खोल कर पूछा, “अब आप कैसे हैं?” वह फिर मुसकुरा कर बोला, “बिल्कुल ठीक” मैंने कहा “कोई जरूरत हो तो बताइयेगा।” उसने हँस कर कहा, “बिल्कुल, आखिरकार एक पड़ोसी ही दूसरे पड़ोसी के काम आयेगा।” मैंने दरवाजा बंद कर लिया। उसकी मुस्कान में एक अजीब सी कशिश थी। 

सुबह का काम खत्म करने के बाद मैं नहाने जा ही रही थी कि घंटी बजी। मैंने दरवाजा खोला तो सामने अभिनंदन ट्रे में दो कप काँफी लिए खड़ा था।  “मैंने सोचा साथ में काँफी पी जाये।” कहते हुए वह अंदर आ गया। काँफी की चुस्कियों के बीच मैंने पूछा, “आपका परिवार साथ में  नहीं आया?” उसने उदास होते हुए कहा, “छ: महीने पहले मेरी पत्नी का देहान्त कैंसर की बीमारी के कारण हो गया था। एक बेटा है, वह अपने नाना-नानी के पास ही रहता है। इतने छोटे बच्चे की देखभाल अकेले कर पाना मेरे लिए मुश्किल था।” मैंने अफसोस जताते हुए कहा, “ईश्वर के आगे किसी की नहीं चलती।” हम दोनों के बीच खामोशी छा गई। थोड़ी देर बाद वह अपने आँसू छिपाते हुए बोला, “आपका बेटा कभी दिखाई नहीं दिया।” मैंने उसे एकटक देखा फिर अपने रुंधे गला को साफ करते हुए कहा, “वह हमारे बीच नहीं रहा। भगवान ने उसे मेरी गोद से छीन कर अपने पास बुला लिया।” कहते हुए मेरा गला भर्रा गया। मैं उसके सामने अपने आप को कमजोर नहीं दिखाना चाहती थी, न ही उससे कोई संवेदना चाहती थी। इससे पहले कि वह कुछ कहता मैंने कुर्सी से उठते हुए कहा, “माफ करें, मुझे कही समय से पहुँचना है।” उसने घड़ी पर नजर डाली, “मुझे भी आफिस जाना है।” कहते हुए वह चला गया। मैंने दरवाजा बंद किया और कृश के कमरे में आ गई। कई घंटे तक वहीं बैठी उसका सामान उल्ट-पल्ट कर देखती रही। 

आते-जाते अभिनंदन जब भी अमर से मिलता तो बात करने की कोशिश करता पर अमर अभिवादन से आगे बढ़ने का मौका ही नहीं देता। हमारे बीच काँफी के दौर बढ़ते जा रहे थे। पहल उसने की पर मुझे उससे बात करना अच्छा लगता था। कृश के जाने के बाद वह पहला शख्स था जिससे मैं इतना खुल कर बात करने लगी थी। मैं अपना दुख उससे कहती और वह भी अपना दर्द मुझ से साँझा करता। हम एक ही कश्ती पर सवार थे। 

 काँफी के उन्हीं दौर के बीच उसने बताया, “मेरी और सीमा की परिवार द्वारा तय शादी थी। वह एक अच्छी पत्नी थी। घर-बाहर का सभी काम उसने इतनी अच्छी तरह संभाल लिया था कि मैं इन सब कामों से निश्चिंत हो गया था। एक साल बाद हमारे घर बेटे ने जन्म लिया। सीमा ने उसकी देखभाल की भी पूरी जिम्मेदारी उठा ली। वह सब कुछ अपने ऊपर लेती गई और मैं बेफिक्र होता चला गया। मेरा पूरा ध्यान अपने काम पर था। वह जब भी मुझसे अपनी कोई इच्छा कहती तो मैं या तो अनसुना कर देता या झुंझुला उठता। एक दिन तो मैंने हद कर दी। गुस्से में मैंने कहा कि तुम्हारी फरमाइशें कभी खत्म नहीं होती। रोज-रोज के लड़ाई-झगड़े से मैं परेशान हो चुका हूँ। उस दिन के बाद से वह एकदम शांत हो गई। मैंने सोचा हमेशा की तरह वह दो-चार दिन में अपने आप ठीक हो जायेगी पर इस बार ऐसा नहीं हुआ। कब दिन महीनों में बदल गये, मेरा ध्यान ही नहीं गया। अचानक एक दिन पता चला कि उसको कैंसर है, वह भी अंतिम स्थिति। हमारे पास वक्त बहुत कम बचा था। मैं उससे माफी माँगने की कोशिश करता रहा पर वह आखिरी सांस तक खामोश रही। न तो माफी ही दी और न कोई शिकायत की। उसकी मौत के बाद बेटे को उसके नाना-नानी ले गये। उनका मानना था कि जब मैं उनकी बेटी की देखभाल न कर पाया तो इतने छोटे बच्चे की कैसे करूँगा। वह गलत नहीं थे? सीमा मुझसे कुछ नहीं चाहती थी। वह तो बस केवल थोड़ा सा प्यार और मेरा ध्यान चाहती थी पर इतनी सी बात समझने में मैंने बहुत देर कर दी।” 

मैंने भी अभिनंदन को बताया कि कैसे मेरी लापरवाही से कृश की मौत हो गई। मैंने उसको अपनी ग्लानि और अपने दुख के बारे में बताया। मैंने बताया कि माँ और अंजू दोनों का मानना है कि हमें दूसरे बच्चे के बारे में सोचना चाहिए। अमर तो मुझसे बात भी नहीं करता, बच्चे के बारे में क्या सोचूं। मैंने उसे यह भी बताया कि अमर अब कितना बदल गया है। हम एक दूसरे से सिर्फ अपना दुख नहीं बाँट रहे थे बल्कि एक दूसरे का हौसला भी बढ़ा रहे थे और सलाह भी देते थे। मैंने उससे कहा, “आपको अपने बेटे से मिलना चाहिए। उसकी माँ चली गई वह तो लौट नहीं सकती कम से कम उसे पिता का तो प्यार मिले। आप को उसे अपने पास रखना चाहिए साथ में उसके नाना-नानी या दादा-दादी को रखें।” उसने मुझे सलाह दी, “अमर को एक बार किसी काउंसलर से मिलना चाहिए। वक्त बहुत दे चुके, अब कुछ ठोस करने का समय है। आपको भी किसी तरह की ग्लानि नहीं रखनी चाहिए। ग्लानि इंसान को जंग की तरह खा जाती है। अपने मन से निकाल दीजिये कि यह सब आप की वजह से हुआ है।”  

वक्त बीतता रहा और हमने पता नहीं कब आप से तुम और अभिनंदन जी से अभि तक का सफर तय कर लिया। मुझे रोज उसके साथ काँफी पीने और गप्पें मारने की आदत पड़ गई थी। मैं अमर से कुछ भी नहीं छुपा रही थी पर उसे मेरी किसी भी बात में रूचि नहीं थी। मैंने उसको बताया, कैसे अभि अपनी पत्नी और बेटे दोनों को एक साथ खो कर भी जिन्दगी को सहज भाव से जीने की कोशिश कर रहा है। उसकी सलाह है कि हम को एक बार काउंसलर से मिलना चाहिए।

अमर का दर्द मैं समझती थी पर मेरी तकलीफ भी कम न थी। मैं कृश को खो कर भी जीने की कोशिश कर कही थी पर वह दिन पर दिन उदासी में खोता जा रहा था। उसकी रोज-रोज की बेरुखी मुझे अभि की ओर खींच रही थी। मैं कोई भी ऐसा काम नहीं करना चाहती थी जो अनैतिक हो। 

  इतवार का दिन था। हमेशा की तरह अमर कमरे में बैठा शून्य में ताक रहा था। मैंने उससे कहा “अमर आज मौसम काफी अच्छा हो रहा है। चलो थोड़ी देर के लिए सामने वाले पार्क में घूम कर आते है।” वह खामोश बैठा रहा। दोपहर के खाने के बाद मैंने एक बार फिर प्रयास किया, “अमर थोड़ी देर बैठो टी.वी. पर समाचार देखते है या फिर जो भी तुम कहो।” वह बिना कोई जवाब दिये कमरे में चला गया। रात खाने के बाद जब मैं काम समेट कर कमरे में पहुँची तो वह पलंग पर लेटा था। मैं उसके पास बैठ गई। मैंने अपना हाथ उसके हाथ पर रख दिया। उसने हाथ खींच लिया। मैंने लाइट बंद की और उसके पास लेट गई। उसने करवट बदल ली। मैंने उसे अपनी ओर खींचते हुए कहा, “अमर आखिर ऐसे कब तक चलेगा। अपने आप को संभालो। न तो तुम खुद कोई प्रयास करते हो और न ही मुझे अपनी कोई मदद करने देते हो। मैंने काउंसलर का समय लिया था वहाँ भी तुम नहीं गये। प्लीज अमर… ” कहते हुए मैं उसके सीने से लग गई। वह झटके से उठा और कमरे के बाहर जाने लगा। मैं अपना स्रब खो चुकी थी। मैंने गुस्से में चीखते हुए कहा, “अमर, कृश मर चुका है और हम अभी जिन्दा हैं। हमें इस जिन्दगी को दुबारा से शुरू करने के लिए एक और कृश की जरूरत है।” यह कहते हुए मैं भाग कर उससे लिपट गई। वह मुझे लगभग धक्का देते हुए कृश के कमरे में चला गया और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। मैं वहीं फर्श पर बैठ गई और फूट-फूट कर रोने लगी।

रात भर मैं फर्श पर ही पड़ी रही। सुबह अमर बिना नाश्ता किये दफ्तर चला गया। मैं पीछे से आवाज ही देती रह गई। मेरा मन बहुत दुखी था। किसी काम में मन नहीं लग रहा था। सब कुछ ऐसे ही छोड़ कर मैंने अभि के घर की घंटी बजा दी। अभि ने दरवाजा खोला तो मैं बिना बुलाये ही अंदर चली गई। उसने थोड़ा व्यंग करते हुए कहा, “तुम को नहीं लगता आज काँफी टाइम थोड़ा जल्दी हो गया।” मैं बिल्कुल शांत रही। वह मेरे पास आ कर बोला “क्या हुआ?” मैं उसके सीने से लग कर रोने लगी। वह मुझे अपने से अलग करते हुए बोला, “मैं पहले काँफी बना लाता हूँ फिर आराम से बात करते है। मुझे भी तुम को कुछ जरूरी बात बतानी है।” मैंने उसे और कस कर पकड़ लिया। मैं उसे अपने से अलग नहीं करना चाहती थी। मैंने रोते-रोते उसे पिछली रात की पूरी बात बता दी। मैं ऐसे ही उससे चिपकी सुबकती रही और वह प्यार से मेरे बाल सहलाता रहा। उससे मेरी यह नजदीकी मुझे उत्तेजित कर रही थी। 

अभि ने मुझे बताया कि वह कल सुबह ही यहाँ से जा रहा है। एक कांफ्रेंस में शामिल होने के बाद वह अपने बेटे से मिलने जायेगा। कंपनी ने उसके अनुरोध पर उसका दबादला बैंगलौर कर दिया है। उसके सास-ससुर का गुस्सा भी अब शांत हो गया है। वह समझ चुके है कि बच्चे को अपने पापा की जरूरत है, इसलिए वह लोग अब साथ में रहेंगे। उसने मुझे धन्यवाद करते हुए कहा, “तुम्हारे बिना यह मुमकिन न था। तुम को कोई भी जरूरत हो तो फोन करना। मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ।” मैं उसके लिए खुश थी पर मन कही उदास था। मैं इस बीच उसके बहुत करीब आ चुकी थी। 

अभि को गये एक महीने से ज्यादा हो गया था। शुरू में उसके कई बार फोन व मैसेज आये पर मैंने उसको समझाया,  “हम दोनों को लिए बेहतर होगा यदि हम अपने रिश्ते को यही पर खत्म कर दें और एक दूसरे को एक अच्छे दोस्त की तरह याद रखे।”

एक रात खाना खाने के बाद मैंने कमरे में जा कर अमर से कहा, “अमर मुझे तुम से कुछ बहुत जरूरी बात करनी है। पूरी बात ध्यान से सुनना बीच में उठ कर मत जाना। मेरी बात सुन कर जो भी प्रतिक्रिया हो कह देना खामोश मत रहना।” वह चुपचाप बैठा रहा। मैं उसके पास बैठ गई। मैंने उसकी आँखों में आँखें डाल कर कहा, “मैं प्रेगनेन्ट हूँ।” वह कुछ देर खामोश बैठा रहा और फिर बिना कुछ कहे उठ कर चल दिया। मैंने कहा, “कुछ कहोगे नहीं?” उसने पलट कर मेरी तरफ देखा। न जाने कितने समय के बाद उसने मेरी ओर नजर डाली थी। उसकी नजर में न तो नफरत थी और न कोई नाराजगी। उसने बड़े सहज भाव से कहा, “मैं समझता हूँ और यह भी समझता हूँ कि इस सब के लिए मैं जिम्मेदार हूँ। मुझे अपने साथ-साथ तुम्हारा दर्द भी समझना चाहिए था। यह हादसा मुझसे भी हो सकता था। तुम चाहो तो इस बच्चे को रख सकती हो। मैं पूरी कोशिश करूँगा कि उसे अपना सकूँ पर कृश की जगह मैं किसी को भी नहीं दे पाऊँगा।” कहते हुए वह कमरे के बाहर जाने लगा। मैं भाग कर उसके सीने से लग गई। उसने न तो मुझे सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाया न झटक कर दूर किया। मेरे लिए इतना ही काफी था । शायद यह हमारे जीवन की नई शुरूवात थी। 

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4 Responses

  1. Anjana Srivastava says:

    अति संवेदन शील कहानी , 🙏👌👌

  2. Arvind says:

    Congratulations and wish you success and fame in your endeavor

  3. Arvind says:

    Congratulations and wish you success and fame in your endeavor
    Hoping to see more stories from you

  4. Jyotsna says:

    Mam ur stories are very touching, it seems u have felt life very closely .

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