“शरणार्थी” Refugees Hindi Story (Sharnarthi in Hindi)

Written By 

-निधि जैन

.          अगस्त का महीना था और मेरी घड़ी में दोपहर के दो बज रहे थे। सड़कों पर सन्नाटा छाया था। मैं, मेरी पत्नी प्रगति और मेरे जुड़वा बेटे लव और कुश, पसीने में तर, भूखे-प्यासे, अपने ही घर के गेट पर खड़े, ताले से जूझ रहे थे। “लगता है जाम हो गया है। तेल डालना पड़ेगा।” किसी बुजुर्ग की आवाज सुन कर मैंने गर्दन उस तरफ घुमाई तो पड़ोस वाले मिश्रा अंकल खड़े थे। हमारे गेट पर आहट सुन कर वह बाहर आ गये थे। कुछ बुझी हुई आवाज में मैंने अभिवादन करते हुए कहा, “हाँ, कुछ ऐसा ही लगता है।” उन्होंने बड़े प्यार से कहा, “तुम लोग अभी अन्दर चलो, फिर बाद में तेल डाल कर देखेंगे। नहीं तो किसी को बुला कर ताला तुड़वा लेंगे।” हमने झिझकते हुए अपना सामान उठाया। तब तक आंटी भी बाहर आ गयीं। अंकल ने उत्सुकता से इधर-उधर झाँकते हुए पूछा, “पापा नहीं आए ?”  मैंने बेफिक्री से कहा “पापा का तो दो साल पहले ही देहांत हो गया था।” अंकल को मेरी बात सुन कर झटका लगा। आंटी ने धीरे से उनके कंधे पर हाथ रख दिया। अंकल ने गर्दन घुमा कर आंटी की ओर देखा। दोनों की ही आँखों में आँसू थे। आंटी ने अंकल का हाथ पकड़ा और अन्दर की ओर चल दीं। अपना सामान उठाए हम भी उनके पीछे चल दिए।

.         सामान जमीन पर रख कर हम सोफे पर बैठ गये। कमरे के कोने वाली कुर्सी पर अंकल बेजान से बैठे थे। आंटी कूलर चला कर अंदर चली गयीं। वह हम सब के लिए शिकंजी और बिस्कुट ले आयीं। हमने बिना इस बात की परवाह किए कि शिकंजी का पानी हमारे लिए कितना सुरक्षित है, गिलास उठा लिया। शिकंजी पी कर माँ याद आ गई। आंटी की शिकंजी में वही स्वाद था जो माँ की शिकंजी का होता था। बच्चों ने तिरछी नजर से हमारी तरफ देखा और बिना हमारे जवाब का इंतजार करे, प्लेट में रखे बिस्कुट उठा लिए। हमारी हालत देख कर आंटी बोलीं, “तुम लोग अंदर जा कर हाथ मुंह धो लो। अभी तो टंकी का पानी गर्म है। शाम को जब ताजा पानी आयेगा, तब नहा सकते हो। मैं तुम लोगों के लिए खाना तैयार करती हूँ।”

.          हाथ-मुंह धो कर जब हम बैठक में पहुँचे तो आंटी अंकल को दिलासा दे रही थीं। अंकल की आँखों से आँसू बह रहे थे। आंटी ने कहा, “तुम को खुश होना चाहिए कि वह अपने आखिरी समय में अपने बच्चों के पास थे।”  हमें देख कर आंटी शांत हो गई और रसोई में चली गयीं।

.          आंटी ने हमारे लिए टमाटर-आलू की सब्जी और गर्म-गर्म पूरियाँ बनाई थीं। हम लोगों ने सुबह से कुछ नहीं खाया था, इसलिए हम सभी खाने पर लगभग टूट पड़े। सालों से नौकरों के हाथ का बना खाना खा रहा था। व्यंजन तो कई होते थे, पर यह स्वाद नहीं। आज का खाना सादा था पर इसमें आंटी का प्यार और माँ के हाथ का स्वाद था।

.          हम अभी खाना खा ही रहे थे कि अंकल ने जा कर ताले में तेल डाल दिया। थोड़ी देर बाद मैं ताली ले कर जाने लगा तो आंटी ने कहा “अभी दो-तीन दिन इधर ही रहो। कल किसी को बुलवा कर सफाई करवा लेंगे।” “आंटी आप परेशान न हो,  हम लोग कुछ न कुछ कर लेंगे”, कहते हुए मैं बाहर निकल आया। आंटी का कमरा हमारे स्तर का नहीं था। वहाँ स्वच्छंदता व एकांतता भी नहीं थी, इसलिए हम पापा के घर पर ही रहना चाहते थे।

.          घर का ताला खोलने पर मुझे एहसास हुआ कि तीन साल से बंद घर एक मिनट खड़े होने लायक भी नहीं है। मैंने आंटी से जाकर कहा, “घर तो बहुत ही खराब हालत में है और बिजली भी नहीं है। शायद कट गई है।” अंकल गुमसुम बैठे छत की ओर देखते रहे। आंटी ने तुरन्त कहा,  “अभी दो-चार दिन यहां रहो। जब घर व्यवस्थित हो जाए तब उधर चले जाना।” हम लोग थके थे और पेट भरा था। अंकल-आंटी से इजाजत ले कर हम आराम करने चले गये।

.          आंटी ने हमारे लिए पलंग पर धुली साफ चादर बिछा दी थी। बैठक का कूलर कमरे में लगा दिया था। एक छोटी मेज पर पानी, कुछ बिस्कुट के पैकेट और कुछ फल ऱख दिये थे। पलंग पर लेटते ही हम चारों गहरी नींद में सो गये।

.          बीच रात मेरी आँख खुल गई। कमरा कुछ गर्म हो गया था पर बच्चे और प्रगति गहरी नींद में थे। बगल के कमरे से आंटी के फुसफुसाने की आवाज आ रही थी, “इस तरह तो आप अपनी तबियत खराब कर लेंगे।” अंकल बोले “वह सिर्फ मेरा पड़ोसी या दोस्त नहीं था, वह मेरे भाई जैसा था। बरसों का साथ था हमारा। कम से कम हमें बताना तो चाहिए था। मैं उसके अंतिम दर्शन नहीं कर पाता पर फिर भी” कह कर अंकल रो पड़े। आंटी ने थोड़ा जोर देते हुए कहा “बस भी करें। बच्चे सुन लेंगे। अपने आप को संभालिए। बच्चों के सामने कोई ऐसी बात नहीं होनी चाहिए वरना ऊपर जा कर अपने दोस्त को क्या मुँह दिखायेंगे।”

.          चारों ओर रात का सन्नाटा छाया था। शायद अंकल-आंटी सो गये थे या खामोश थे, पर मेरी नींद गायब हो गयी थी। अंकल गलत नहीं कह रहे थे। अब मुझे अपनी गलती का अहसास हो रहा था। मुझे इन लोगों को खबर करनी चाहिए थी। पापा ने भी अपने आखिरी समय पर दो बातें कही थी, “मेरा अन्तिम काम मेरे अपनों के बीच लखनऊ में करना। यदि यह संभव न हो तो कम से कम मिश्राजी को खबर जरूर कर देना। लखनऊ जा कर मकान या तो किराये पर उठा देना या फिर बेच देना। कुछ न कुछ फैसला जरूर कर लेना।” पापा के साथ उनकी बातें भी चली गयीं। मैं अपनी ही दुनिया बनाने में लगा रहा।

.          पलंग पर लेटे-लेटे ही वक्त तीन साल पीछे चला गया। जब मैं माँ की बीमारी की खबर सुनते ही पहली उड़ान ले कर लखनऊ आ गया था। प्रगति और बच्चे नहीं आ पाये थे। माँ से मेरा विशेष लगाव था। मैं उनका लाड़ला था और वह मेरी सब कुछ। पापा अनुशासन प्रिय थे और कुछ जरूरत से ज्यादा सख्ती दिखाते थे, इसलिए मेरा उनसे कोई जुड़ाव नहीं था। उन्हें लगता था कि इकलौता बच्चा होने के कारण कहीं मैं बिगड़ न जाऊँ। उनका वेतन हम तीनों के लिए भरपूर था पर वह जरूरत से ज्यादा कंजूस थे। उनका मानना था कि भविष्य के लिए अधिक से अधिक बचत करो, पता नहीं कब कैसा वक्त देखना पड़े। माँ को हर चीज के लिए मन मारना पड़ता। उनकी अपनी तो कोई ख्वाइशें नहीं थीं पर कई बार नाते-रिश्तेदारों के बीच अपना मान रखना ही होता है। पापा का कहना था, “झूठी शान दिखाने की जरूरत नहीं।” मुझे भी उन्होंने कभी जेब खर्च नहीं दिया। माँगने पर कहते, “खाना-कपड़ा और पढ़ाई का खर्च हम उठाते हैं, फिर जेब खर्च क्यों चाहिए।” उनकी यह बातें दिल में तीर की तरह चुभ जाती। मेरे जन्मदिन पर माँ, पापा से छुपा कर कुछ पैसे दे देती थीं।

.          एक प्रतिष्ठित कॉलेज के केमिकल इंजीनियरिंग में मेरा दाखिला हो गया। वहाँ मेरी मुलाकात प्रगति से हुई। बिना माँ-बाप की इच्छा जाने हमने साथ जिंदगी बिताने का फैसला कर लिया। पढ़ाई पूरी करते ही एक बड़ी तेल कंपनी में मेरी नौकरी लग गई। नौकरी लगे एक साल ही हुआ था कि प्रगति के माँ-बाप उस पर शादी के लिए जोर डालने लगे। मैंने माँ से अपने मन की बात कही तो उन्होंने कहा, “पापा कभी नहीं मानेंगे। वह मिश्रा जी से वादा कर चुके हैं कि उनकी बेटी ही हमारे घर की बहू बनेगी।”

.          मुझे कुवैत से नौकरी का प्रस्ताव मिला था। मैंने जाने से पहले प्रगति से शादी करने का विचार बना लिया। पापा को समझाने का न वक्त था, न हिम्मत और न फायदा। मैंने कोर्ट में शादी कर ली और प्रगति को माँ-पापा से मिलवाने लखनऊ ले आया। माँ ने पूरे मन से प्रगति का स्वागत किया पर पापा ने हम दोनों से ही बात नहीं की।

.          एक शाम पापा मेज पर चाय पी रहे थे। पास वाली कुर्सी पर माँ बैठी थीं। मैं और प्रगति भी वहाँ जा कर बैठ गये। पापा उठ कर जाने लगे तो मैंने कहा, “पापा, मुझे कुवैत में एक बड़ी अच्छी नौकरी मिल गई है। चार-पाँच साल में ही अच्छा पैसा जमा हो जायेगा। फिर वापस लौट आएंगे। आप का क्या विचार है?” उन्होंने कमरे में जाते हुए कहा, “जब शादी करने से पहले हमारे विचार नहीं पूछे तो अब पूछने की क्या जरूरत है।” मैंने माँ की तरफ देखा। उन्होंने नम आँखों से अपना एक हाथ मेरे हाथ पर और एक प्रगति के हाथ पर रख कर अपनी स्वीकृति दे दी। मुझे समझ आ रहा था कि माँ मेरे जाने का सुन कर भावुक हो रही है। कुछ ही सालों की बात थी और उसने अपना आशीर्वाद तो मुझे दे ही दिया था। मैंने कुवैत की नौकरी के लिए हाँ कर दी।

.          शादी के दो साल बाद प्रगति ने जुड़वां बेटों को जन्म दिया। माँ के बार-बार जोर देने पर हम बच्चों को ले कर लखनऊ आये। पापा बच्चों से मिल कर खुश हुए। मेरे और प्रगति के लिए अब भी उनके मन में कोई भावनायें नहीं थीं। चलते समय माँ मुझे गले लग कर रोने लगी। मैंने पहली बार उनको रोते देखा था। जीवन पर्यन्त कठिनाइयाँ सह कर भी वह हमेशा मजबूत रहीं। मेरा मन उनके लिए कई दिनों तक बेचैन रहा, फिर मैं अपने काम में व्यस्त हो गया।

.          कुवैत रहते हुए हमें पाँच साल हो गये थे। माँ की चिट्ठियाँ आती रहती थी। वक्त की कमी के कारण कई बार तो मैं उत्तर भी नहीं दे पाता था। वह हमेशा एक ही बात लिखती, “पाँच साल हो गये हैं, तुमने कहा था चार साल बाद लौट आओगे। वापस कब आओगे?” मेरे पास उसके प्रश्नों का कोई जवाब नहीं था। मैंने तय कर लिया था कि अभी हम कम से कम पाँच साल और यहीं रहेंगे। हमारी आर्थिक व सामाजिक स्थिति काफी अच्छी हो गई थी। मैंने यहाँ अपनी एक अलग ही दुनिया बना ली थी। यहाँ के उच्च अधिकारियों व व्यापारियों में मेरा उठना-बैठना था। मुझे यहाँ के माहौल में मजा आने लगा था। मैं अपने ही नशे में चूर था। मुझे एहसास ही नहीं हुआ कि मेरे माँ-बाप की ज़िन्दगी रेत की तरह हाथ से फिसलती जा रही है और फिर एक दिन माँ के बीमार होने की खबर आई।

.          जब तक मैं लखनऊ पहुँचा, माँ का अन्तिम संस्कार भी हो चुका था। अब मेरे भारत लौटने की एकमात्र वजह भी खत्म हो गई थी। मैंने पापा से कहा, “आप मेरे साथ कुवैत चलिए। यहां अकेले कैसे रहेंगे?” मैं पापा को साथ इसलिए नहीं ले जा रहा था कि उन्हें मेरी जरूरत है या मुझे उनसे कोई लगाव है। माँ ने अपने आखिरी पत्र में लिखा था, “अपने पापा का हमेशा ख्याल रखना। वह सख्त मिजाज हैं पर तुमसे प्यार करते है।” अब मैं कभी भारत नहीं लौटने वाला था। उनसे मिलने के लिए बार-बार आना मेरे लिए मुमकिन नहीं था। माँ की बात का मान रखने के लिए मैंने पापा को साथ चलने को कहा। पापा ने जाने से साफ मना कर दिया। मिश्रा अंकल ने भी उनका साथ दिया। मैंने उन्हें यह कह कर चुप करा दिया, “अंकल यह मेरे घर का मामला है, आप बीच में न ही पड़ें।” मैंने पूजा के अगले दिन की टिकट करा ली। पापा ने बहुत कहा, “जाने से पहले घर का तो कुछ इंतजाम कर दें।” मैंने कहा, “अभी अचानक ही आ गया, फिर जल्द आ कर इसे बेच देंगे।” पापा ने आँखों में आँसू भर कर कहा, “बेच देंगे! मेरे खून-पसीने की कमाई है।”  मैंने अपने आलीशान घर का रौब झाड़ते हुए कहा, “अरे पापा! जब आप मेरा घर देखेंगे तो इस माचिस की डिब्बी को भूल जायेंगे।” पापा खामोश रहे। मैंने महसूस किया, इस बार पापा की सख्ती कही गायब हो गयी थी। वह काफी शांत हो गये थे। सुना था उम्र के साथ तो शेर भी बूढ़ा और कमजोर हो जाता है।

.          मैं पापा को ले कर कुवैत पहुँच गया। मेरी दिनचर्या पर पापा की उपस्थिति का कोई असर नहीं पड़ा। दो बार की मुलाकात में जो व्यवहार पापा ने प्रगति के साथ किया, उसके बाद उससे कोई उम्मीद रखना भी गलत था। हम दोनों दिन भर अपने काम में व्यस्त रहते और रात को शहर के नामी लोगों की दावतों में।

.          पापा को यहाँ आए छह महीने हो गये थे। वह यहाँ आ कर बिल्कुल अकेले पड़ गये थे। बीच-बीच में वह लखनऊ चलने को कहते, पर मैं या तो उन्हें सुनकर भी अनसुना कर देता या कह देता, “ऐसा क्या रखा है आपका लखनऊ में जो आप को हर समय एक ही रट लगी रहती है। फुर्सत मिलते ही चलेंगे।” पापा दबी जुबान से कहते, “घर बंद पड़ा है। सब खराब हो रहा होगा। कम से कम मिश्रा को चाबी दे आते तो वह ही देखभाल करता रहता।” मैं अहंकार से भरा जवाब देता, “किसी का अहसान नहीं चाहिए। मैं हर तरह से सक्षम हूँ। उस मकान की मेरे लिए कोई कीमत नहीं।”

.          पापा मकान का बोझ सीने पर लिए ही एक दिन हमें छोड़ कर चले गये। उन्हें हार्ट-अटैक आया था। नौकर ने अस्पताल पहुँचा कर मुझे खबर कर दी। जब मैं अस्पताल पहुँचा तो उन्होंने अपनी आखिरी दो इच्छायें कही और हमेशा के लिए आँखें बन्द कर ली। उनके जाते ही मैंने उनके कहे आखिरी शब्दों को भूला दिया और अपनी ही दुनिया में मशगूल हो गया। छह महीने पहले ही मैंने नौकरी छोड़ कर अपना व्यवसाय शुरू किया था इसलिए व्यस्तता कुछ ज्यादा ही थी।

.          १९९०, पापा को गए दो साल हो गये थे। मेरा व्यापार काफी अच्छा चल रहा था। तभी इराक और कुवैत के बीच लड़ाई छिड़ गयी। इराक की नजर कुवैत के तेल भंडार पर थी। अमीर और उनका परिवार, सभी नेता और बड़े सरकारी कर्मचारी सऊदी अरब भाग गये। मेरे दोस्तों ने सलाह दी कि जल्द ही मैं हिन्दुस्तान लौट जाऊँ। प्रगति भी मुझ पर बराबर कुवैत छोड़ने का दबाव बना रही थी। ऐसे अचानक जाना मुमकिन नहीं था, बहुत कुछ समेटना था। कम से कम दस-पन्द्रह दिन तो चाहिए थे।

.          दो दिन में ही इराक ने कुवैत पर कब्जा कर लिया। हड़बड़ी में जो कुछ भी हाथ लगा वह साथ में ले कर हम राहत शिविर पहुँच गये। करीब दो लाख भारतीय शिविरों में थे। वहाँ रहने की व्यवस्था बहुत खराब थी। आलीशान हवेली में रहने वाले के लिए वहाँ रहना काफी मुश्किल था। दूसरा कोई और चारा भी न था। हम में से कुछ लोगों ने भारत सरकार से बात की और साथ ही इराक सरकार से भी। हम बसों द्वारा जॉर्डन और फिर वहाँ से एयर-इंडिया की उड़ान से बम्बई पहुँचे। साथ लाये पैसे भी लगभग खत्म हो गये थे। हर किसी को तो छोटे से छोटे काम के लिए बड़ी रकम चाहिए थी। लोगों को लग रहा था कि जैसे हम पैसों का पेड़ साथ लाए हैं। किसी के अंदर जरा भी संवेदना नहीं थी। हमने ट्रेन ली और भूखे-प्यासे, धूल-पसीने में लथपथ लखनऊ पहुँच गये। जिस शहर और घर को मैं सालों पहले छोड़ चुका था और जिसका अस्तित्व मेरे लिए कुछ भी नहीं था। आज वह ही मेरा एक मात्र सहारा था। प्रगति के घर जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था। उसके पिता का देहान्त चार साल पहले हो गया था। माँ अब भाई के साथ उनके छोटे से फ्लैट में रहती थीं। उनके पास अपना कमरा तक नहीं था, बैठक के दीवान पर ही उनका बसेरा था। ऐसी स्थिति में हम कहाँ रहते। यही सब सोचते-सोचते सुबह हो गयी।

.          आंटी ने नाश्ते में हमारे लिए पकौड़ियाँ बनाई। अंकल पास के बाजार से  गर्म-गर्म जलेबियाँ ले आए। आंटी ने अपनी काम वाली बाई से कहा, “अपने आदमी को ला कर भैया के घर की सफाई करा दे।”

Refugees Story in Hindi

.          घर व्यवस्थित करने में पूरा एक हफ्ता लग गया। इस बीच हम अंकल-आंटी के पास ही रहे। आंटी ने हमारा बहुत ख्याल रखा। बच्चों को तरह-तरह की चीजें बना कर खिलाना और खाली समय में उन्हें कहानी-किस्से सुनाती। बच्चे दिन भर आंटी से साथ ही लगे रहते। जब भी मैं और प्रगति काम से बाहर जाते आंटी बच्चों को अपने पास रख लेतीं और बच्चे भी खुशी-खुशी रुक जाते। हमारे आने के बाद से अंकल एकदम शांत थे पर उन्होंने हमारे सभी कामों में पूरा सहयोग दिया। फिर चाहे वह बिजली का कनेक्शन लेना हो, घर का सामान लाना हो, कूलर ठीक करवाना हो या बैंक जा कर पापा के खाते से पैसे निकालने हों। अंकल ने बताया कि पापा ने मुझे अपने खाते और मकान दोनों में ही नामांकित कर दिया था। जिस कारण मुझे बैंक के काम में कोई परेशानी नहीं हुई। पापा के पैसे मेरे लिए वरदान साबित हुए। आज मुझे इस माचिस की डिब्बी और बचत की कीमत समझ आ रही थी।

.         एक हफ्ते बाद हम पापा के घर में आ गये। अब सवाल था नौकरी ढूंढने का। मैं और प्रगति इसी उधेड़बुन में लगे थे कि मिश्रा आंटी बच्चों के लिए हलवा ले कर आ गई। हम लोगों को उदास देख कर उन्होंने कारण पूछा तो प्रगति ने कहा, “आंटी हम नौकरी के बारे में सोच रहे थे। हड़बड़ी में हमारे सभी महत्वपूर्ण कागज वहीं रह गये। उनके बिना नौकरी मिलना असंभव है। दूसरी मार्कशीट, डिग्री आदि बनवाने में तो न जाने कितना समय लग जायेगा।” आंटी ने बड़े प्यार से कहा “मैं तुम लोगों से यही कहने आई थी। वह जो अपने गुप्ता जी है न,” मैंने आश्चर्य से कहा, “कौन गुप्ता जी?” आंटी ने अचरज से आँखें फैलाते हुए कहा, “अरे! सौरभ के पापा, जो तुम्हारे साथ पढ़ता था। तुम्हें उसके बारे में तो पता होगा?” मैंने अचंभे से आंटी की ओर देखा। वह बोलीं, “सौरभ अपने पापा की फैक्टरी में ही काम देखता था। छह महीने पहले वहां एक दुर्घटना में उसकी मौत हो गई।” मैंने अफसोस जताते हुए कहा, “उनकी तो पेंट्स की फैक्ट्री थी?” आंटी ने कहा, “हाँ, बेटे के चले जाने से गुप्ता जी एकदम टूट गये हैं, साथ ही अकेले भी पड़ गये है। तुम उनकी फैक्ट्री जाने लगो। तुम्हें काम मिल जाएगा और उन्हें किसी अपने का सहारा। आज शाम अंकल के साथ जाकर उनसे मिल लो।” मैं खामोश बैठा शून्य में देखता रहा।

.          शाम को अंकल मुझे लेकर गुप्ता जी के घर पहुँच गये। मैंने हाथ जोड़ कर अभिवादन करते हुए कहा, “अंकल, सौरभ का सुन कर बड़ा अफसोस हुआ।” उन्होंने धीरे से गर्दन हिला दी पर शब्दों से कुछ नहीं कहा। मैं चुपचाप मिश्रा अंकल के बगल वाली कुर्सी पर बैठ गया। इससे पहले कि मैं कुछ और बात करता, कालोनी के दो-तीन अंकल और आ गये। इतने लोगों के बीच नौकरी की बात करना मुझे कुछ उचित नहीं लगा। मैंने मिश्रा अंकल से धीरे से कहा, “अंकल, आज रहने देते है। कल फैक्ट्री चल कर बात कर लेंगे।” मिश्रा अंकल ने मेरी बात को अनसुना करते हुए कहा, “गुप्ता, शर्मा के बेटे को कल से अपने साथ फैक्ट्री ले जाना। बड़ा काबिल लड़का है। फैक्टरी के लिए ठीक रहेगा।” गुप्ता अंकल ने नाराजगी भरे शब्दों में कहा, “मेरी फैक्ट्री में शरणार्थियों के लिए कोई सहारा नहीं है। तेरे घर में है तो तू ही दे।” मिश्रा अंकल, जो हमारे आने के बाद से एकदम खामोश थे, गुस्से में आग बबूला होते हुए बोले, “शरणार्थी नहीं है यह, तुम्हारे मित्र शर्मा का बेटा है। वह शर्मा, जो हम सब मित्र था, भाई था, सुख-दुख का साथी था। आज वह नहीं है तो क्या इसे ऐसे ही छोड़ दोगे।” कहते हुए अंकल का गला भर्रा गया और आँखें नम हो गयीं। गुप्ता अंकल उठ कर मेरे पास आए और मुझे गले से लगा लिया। रूंधे गले से उन्होंने कहा “कल से तुम मेरे साथ फैक्टरी चलना। सौरभ का काम अब तुम्ही संभालना।” आज मुझे अहसास हुआ कि क्यों पापा की जान लखनऊ में अटकी थी। उनका असली परिवार तो यहीं था।

-निधि जैन

Refugees Story in Hindi आपको कैसी लगी हमें बताये और आप भी अपनी कहानी पब्लिश करना चाहते हैं तो हमें भेजे।

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9 Responses

  1. Veena Srivastava says:

    Nice story Keep writing

  2. Rakesh Kumar Goyal says:

    Very beautiful and touching story highlighting the strong bonds of love and affection among the old friends.

  3. SHALINI Jain says:

    Story teach the value of our culture ,no one can forget his native

  4. SHALINI Jain says:

    Touching story showing a healthy relationship among friends and neighbours .

  5. Neera Srivastava says:

    वर्तमान परिदृश्य में यथार्थ का बहुत सटीक चित्रण किया है।लेखिका निश्चय है बधाई की पात्र हैं

  6. Deepika Duggal says:

    Congratulations for ‘Sharnarthi’.This is an inspiring and a must read story for two generations.Stories are considered ‘tools for communication between two minds’ and this well written and comprehensive story fully fulfilled this purpose.It is very true that it hurts when we realise that we are not as important to someone as we thought we were.Heart touching and real life story.In the present materialistic society such type of motivational stories leave a deep impact on our life.Expression of feelings is very good.भाषा अन्त तक बाधे रखती है।बधाई के पात्र हैं।

  7. Deepika Duggal says:

    Very well written and

  8. Nishi Garg says:

    Heart touching story. Keep writing.

  9. Rakesh Goyal says:

    It is a very touching story about the different mindsets and value systems of the two generations. The close bonds of friendship amongst the older generation are gradually ceding ground to the materialistic outlook rampant in the new generation. The story brings out well the frailties as well as the generosity of the human beings motivated by their diverse visceral emotions. Nice story indeed.

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