वेदना (भाग2) Hindi Story by Nidhi Jain
-निधि जैन
पार्थ, वासु का ममेरा भाई था। बचपन से वह वासु के घर आता-जाता था। कई बार मेरी उससे मुलाकात भी हुई, लेकिन हमारे बीच हमेशा सिर्फ एक औपचारिक बातचीत ही हुई । शादी में उपस्थित लोगों में वही मेरे लिए सबसे परिचित चेहरा था, इसलिए मेरा ध्यान रखने की जिम्मेदारी वासु ने उसे दी। यह मेरे लिए अजीब था क्योंकि वासु जानता था, मुझे इस की जरूरत नहीं थी। शायद यह वासु की एक सोची-समझी योजना थी क्योंकि दावत से लौटते वक्त पार्थ ने मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रखा। वह एक मल्टीनेशनल कंपनी में साफ्टवेयर इंजीनियर था। अच्छे वेतन के साथ परिवार से भी समृद्ध था। देखने में लम्बा, गोरा, आकर्षक, बात-चीत में बहुत ही विनम्र व सभ्य और इस सब से भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात कि वह वासु का भाई था। हाँ करने के लिए और क्या चाहिए था, पर मैं कोई भी निर्णय जल्दबाजी में नहीं लेना चाहती थी। मैंने पार्थ से नम्रता पूर्वक कहा, “आप को नहीं लगता सब कुछ बहुत जल्दी हो रहा हैं। आज पहली बार हमने कुछ वक्त साथ गुजारा है।” उसने मुसकुरा कर कहा, “मेरा प्रस्ताव आज भी यही है, कल भी यही होगा और सौ साल बाद भी यही। आप को जितना वक्त लेना है, ले सकती हैं। वासु भाई से आप के बारे में बहुत सुना था, आज महसूस भी कर किया।” मैंने उससे सोचने के लिए समय माँगा। आज माँ बहुत याद आ रही थी यदि वह जिन्दा होती तो मुझे निर्णय लेने में मदद करती।
अगले दिन वासु ने मुझे समझाते हुए कहा, “ज्यादा सोच मत, पार्थ की गारंटी मैं लेता हूँ। तू उसके साथ खुश रहेगी और फिर मैं तो हमेशा तेरे साथ हूँ ही।” मेरे हाँ करने के लिए इतना काफी था क्योंकि वासु सिर्फ मेरा अच्छा दोस्त ही नहीं, एक सलाहकार व मार्गदर्शक भी था। मैं अपने हर छोटे-बड़े फैसलों के लिए उस पर निर्भर करती थी। वह मेरा एक अच्छा जीवन साथी बन सकता था पर हम दोनों ने कभी एक-दूसरे को इस निगाह से देखा ही नहीं।
वासु को जल्द वापस जाना था। मेरी शादी में शामिल होना जितना महत्वपूर्ण उसके लिए था, उससे कहीं ज्यादा मेरे लिए। एक हफ्ते में मेरी शादी पार्थ के साथ हो गई और वह था मेरे जीवन का चौथा पुरुष। शादी के बाद मैंने पार्थ के साथ एक नई जिन्दगी में प्रवेश किया। कुछ समय पहले ही उसने फरीदाबाद में तीन कमरों का एक फ्लैट खरीदा था। घर की चांबियाँ मुझे सौंपते हुए उसने कहा, “मकान मैंने खरीदा था, अब इसे घर हम दोनों मिल कर बनायेंगे।” उसके बाद हम दोनों उस फ्लैट को घर बनाने में व्यस्त हो गये। सभी जरूरी सामान के साथ-साथ साज-सज्जा का भी सामान खरीद डाला। मैंने अपने कमरे के लिए हल्के गुलाबी रंग के परदे खरीदे जिस पर गहरे लाल व सुनहरे रंग की बेल बनी थी। वैसे ही परदे माँ ने अपने कमरे में लगाये थे। जब तक वह जिन्दा थीं, उन्हें धो कर, चमका कर रखती थी। उसके जाने के बाद वह परदे पता नहीं कब गुलाबी से काले हो गये। पार्थ ने टोका भी, “इतने हल्के रंग के परदे? इनका रख-रखाव मुश्किल होगा।” पर मुझे तो वही परदे चाहिए थे। मैंने उन्हें अपने मन के भाव बता दिये और उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी। वैसे भी जहाँ कहीं मैं खर्च करने में झिझकती, वहाँ पार्थ मुझे अपना समर्थन दे कर वह चीज़ खरीदवा देते। उन्होंने कभी किसी भी वस्तु के लिये मुझे मना नहीं किया। साथ-साथ खरीदारी करने और घर सजाने से हम को एक दूसरे को समझने और करीब आने का मौका मिला। हमारी पसंद-नापसंद, विचार और काफी हद तक स्वभाव मिलते थे। हम एक दूसरे के पूरक थे। पार्थ एक अच्छे इंसान थे। मेरी जिन्दगी खुशियों से भर गई थी और मैं मन ही मन वासु की शुक्रगुजार थी।
वासु के बराबर फोन आते रहते थे। हर बार वह यह पूछना नहीं भूलता, “तू खुश है न, कोई भी परेशानी हो तो कहना, मैं सिर्फ एक फोन काँल की दूरी पर हूँ।” जैसे-जैसे उसे भरोसा होता गया कि मेरे और पार्थ के बीच सब ठीक चल रहा है और मैं खुश हूँ, वैसे-वैसे दो काँल के बीच का अंतराल बढ़ता गया।
पार्थ का पूरा परिवार एक साथ बरेली में रहता था। वह तीन भाइयों में सबसे छोटे थे। माँ-बाप और दोनों बड़े भाइयों के लाड़ले थे। उनमें एक भी अवगुण ऐसा नहीं था जो उन्हें लाड़-प्यार में बिगड़े की श्रेणी में रखे। बड़े भैया के तीन और छोटे के दो बेटियाँ थी। सास का बस चलता तो लड़का आने तक बच्चों की लाइन लगवाती रहती। उनकी तीव्र इच्छा थी कि इस पीढ़ी में कम से कम एक लड़का तो हो। इस लालसा के बावजूद उन्होंने न तो कभी पोतियों और न ही बहूओं के साथ कोई गलत व्यवहार किया। वह सभी को एक समान प्यार व स्नेह देती थीं। पूरे परिवार को बाँध कर रखने में उनकी अहम् भूमिका थी। जब मेरा नम्बर आया तब मन में पोते की इच्छा लिए उन्होंने बड़े ही भावुक स्वर में कहा, “अब तो सारी उम्मीदें तुम से ही हैं।” मुझे और पार्थ को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि लड़का हो या लड़की, बस बच्चा शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ होना चाहिए। सास के पूजा-पाठ व ईश्वर की कृपा से शादी के एक साल बाद हमारे घर बेटे ने जन्म लिया। मेरा बेटा ही था मेरे जीवन का पाँचवा पुरुष। बेटा कैसा भी हो, उसकी जिन्दगी में माँ का एक विशेष महत्व होता है। बचपन से मैंने भाई को माँ के प्रति जिम्मेदारी निभाते देखा था, शायद इसीलिए बेटे के आने से मुझ में एक आत्मविश्वास आ गया था। मुझे विश्वास हो गया कि संकट के समय कोई मेरा साथ दे या न दे मेरा बेटा अवश्य देगा। मेरी जिन्दगी पूर्ण हो गयी थी। मुझे और क्या चाहिए था, सब कुछ तो था मेरे पास, एक शांतिपूर्ण घर, प्यार देने वाला ससुराल, पलकों पर बिठा कर रखने वाला पति और एक प्यारा सा बेटा, श्रुत।
परिवार में पाँच-पाँच कन्याओं के बाद बेटे का जन्म सभी के लिए बहुत बड़ी बात थी। श्रुत के आने के बाद से हमारा बरेली आना-जाना बढ़ गया था। वहाँ सभी के लाड़-प्यार में वह जिद्दी हो रहा था। बाकी सब से तो मैं कुछ कह नहीं सकती थी पर पार्थ को मैं समझाती, “हर जिद्द पूरी करोगे तो हाथ से निकल जायेगा।” धीरे-धीरे समय के साथ वह बड़ा हो रहा था। उसकी जिद्द और माँगें भी बड़ी हो रहीं थीं। मैं सख्ती दिखाती तो पार्थ उसका साथ देते। वह मुझे अपना दुश्मन व पापा को अपना दोस्त समझने लगा था। ऐसा लगता जैसे इतिहास अपने आप को दोहरा रहा था।
भाई पढ़ाई में शुरू से काफी अच्छा था। वासु ने उसे विदेश आ कर आगे की पढ़ाई करने का सुझाव दिया। माँ द्वारा दी गई मेरी जिम्मेदारी से भी वह अब मुक्त हो गया था, इसलिए उसने विदेश जाने का मन बना लिया। अब वह रात-दिन उसकी तैयारी में व्यस्त रहने लगा। पापा में आज भी कोई परिवर्तन नहीं आया था। आज भी वह दोस्तों और दारू के बीच ही फंसे थे। मेरे जाने के बाद घर और पापा दोनों की ही हालत और खराब हो गई थी। उनके लिए कभी-कभी बहुत खराब लगता था, पर मैं कर भी क्या सकती थी। माँ ने मरने से पहले मुझसे और भाई से कहा था, “मेरे जाने के बाद पापा को उनके हाल पर छोड़ देना। वह न बदले हैं, न बदलेंगे। मैंने अपना पूरा जीवन उनके के लिए व्यर्थ कर दिया, तुम लोग ऐसा कभी मत करना।”
कड़ी मेहनत और संघर्ष के बावजूद भाई विदेश में दाखिला लेने में असमर्थ रहा। पढ़ाई में तेज होने के कारण उसे दाखिला तो कई कालेजों में मिला पर छात्रवृति इतनी नहीं मिली कि वह फीस के साथ-साथ वहाँ का खर्चा भी उठा सके। वासु और पार्थ दोनों ने पूरा सहयोग देने का सिर्फ आश्वासन ही नहीं दिया बल्कि बहुत जोर भी डाला। वासु ने तो यहाँ तक कहा, “तुम मेरे घर पर रह लेना। खाने-पीने और रहने का खर्च बचेगा। कोई पार्ट टाइम काम कर लेना, उससे तुम्हारा ऊपरी खर्चा निकल आयेगा। स्कालरशिप व पार्थ की मदद से फीस व पढ़ाई संबंधित खर्चे पूरे हो जायेंगे। यदि कुछ और जरूरत पड़ी तो मैं हूँ ना।” भाई के बराबर मना करने पर वह हँसते हुए बोला, “अरे भाई मेरे, जब तेरी नौकरी लग जाये तब पार्थ के पैसे लौटा देना। ज्यादा समस्या है तो मैं तेरे खाने-पीने, रहने का पूरा हिसाब रखूँगा। उस पर ब्याज लगा कर वसूल लूँगा। बस तू किसी भी तरह आ जा, इतना अच्छा मौका छोड़ मत।” भाई माँ की तरह स्वाभिमानी था। वह विदेश जाना तो चाहता था पर अपने दम पर, किसी की खैरात पर नहीं। वासु और पार्थ ने मुझ पर जोर डाला कि मैं भाई को समझाऊँ। मैं भाई से सहमत थी पर उन दोनों के दवाब में आकर मैंने भाई से कहा, “बचपन से जानती हूँ, तेरे अंदर की दबी इच्छा। घर की स्थिति के कारण तूने कभी उसे बाहर नहीं आने दिया। तेरे सामान में कई बार मैंने विदेशी यूनिवर्सिटी की तस्वीरें देखी है। आज भगवान ने यह मौका दिया है तो उसे व्यर्थ मत जाने दे।” उसने हम सब की एक नहीं सुनी और बैंगलौर में एक अमेरिकी कंपनी में नौकरी कर ली। साथ-साथ वह विदेशों में नौकरी के लिए भी प्रयास करता रहा। मेरे बार-बार कहने पर भी वह शादी करने को तैयार नहीं था। उसकी प्राथमिकता अपने बचपन के सपने को पूरा करने की थी।
श्रुत जैसे-जैसे बड़ा हो रहा था उसमें पूर्णतया अपने पापा की छवि आ रही थी। वह उन्हीं की तरह देखने में खूबसूरत व दिमाग से तेज था। रहन-सहन और शौक भी अपने पापा की तरह ही थे। मेरा एक भी गुण उसमें नहीं आया था। मैं हमेशा से गरीबी में रही थी। इसलिए आज भी मेरी सोच वही थी। मैं एक साधारण जीवन व्यतीत करने में विश्वास रखती थी। जितनी जरूरत हो बस उतना सामान खरीदना और कम से कम में गुजारा करना। कई बार पार्थ मेरे इस रवैये पर नाराज भी होते। उनका कहना था, “तुम भी, सामान पसंद करने से पहले उसके पैसे पूछती हो। जो पसंद है ले लो, ज्यादा सोचा मत करो।” श्रुत जिस वस्तु पर हाथ रख देता, पार्थ बिना एक पल विचार किए खरीद लेते और मैं उसका मूल्य ही देखती रह जाती। समय के साथ श्रुत के स्वभाव में परिवर्तन आ रहा था। जब वह छोटा था तब उसके मन में सब के लिए इज्जत, प्यार व सहानुभूति थी। मुझे याद है जब वह करीब नौ-दस साल का था, हम एक शाम बाजार गये। कड़ाके की ठंड थी। दुकान के बाहर एक भिखारी ठंड में काँप रहा था। श्रुत ने अपनी जैकट उतारी और उस भिखारी को दे दी। हमारे मना करने पर वह बोला, “अंकल को ठंड लग रही है।” हमने उसे समझाया, “तुम्हारी जैकट अंकल के छोटी है।” उसने जवाब में कहा, “आप अंकल के लिए दूसरी जैकट खरीद दो।” हमने पास की दुकान से उस भिखारी को एक कंबल खरीद कर दिया। समय के साथ श्रुत का बर्ताव लोगों के लिए बदल रहा था। उसमें अकड़ और गुरूर आ रहा था जो कि उसके माँ-बाप में क्या, परिवार के किसी भी सदस्य में नहीं था।
श्रुत पढ़ाई में काफी तेज था। अधिकतर वह कक्षा में प्रथम आता, यदि कभी नहीं आ पाता तो पूरी लगन से अगली बार की तैयारी में जुट जाता। धीरे-धीरे वह अपनी कमियों के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराने लगा। कभी कहता टीचर ने काँपी ठीक से नहीं जाँची है, कभी आरोप लगाता कि जो प्रथम आया है उसने नकल की है और कभी यह कि टीचर चापलूसी करने वाले को ही ज्यादा नम्बर देती है। मैं उसे समझाती, पर सब व्यर्थ था। पढ़ाई के साथ-साथ वह खेल-कूद में भी अच्छा था। खेल में उसकी पसंद सामान्य बच्चों से थोड़ी भिन्न थी। उसका रुझान क्रिकेट, फुटबाल, हाँकी, बास्केटबाल से हट कर तीरंदाजी व शूटिंग में ज्यादा था। इन खेलों की विभिन्न प्रतियोगिताओं में, अपने स्कूल का प्रतिनिधित्व करने वाला वह इकलौता था और उसे इस बात पर काफी घमंड भी था। अपने पापा की तरह कम्पयूटर पर भी उसकी पकड़ काफी अच्छी थी। वह विभिन्न उच्चस्तरीय आँनलाइन प्रतियोगिताओं में भाग लेता रहता था और उनमें उसका प्रर्दशन सराहनीय होता। उसके इन सभी गुणों के कारण उसे हमेशा कक्षा का मांनीटर बनाया जाता था। टीचर उसकी प्रशंसा करते नहीं थकती थी। जहाँ उसकी यह सब अच्छाइयाँ मुझे गर्व का अनुभव कराती, वहीं उसका बदलता स्वभाव मुझे मानसिक तनाव दे रहा था।
इस साल श्रुत ने दसवीं की परीक्षा दी थी। परीक्षा-फल अभी आया नहीं था। दसवीं की शुरूवात से ही उसका मन पढ़ाई में कम और यारी-दोस्ती में ज्यादा था, इसीलिए मुझे बड़ी घबराहट थी कि न जाने क्या होगा। पार्थ ने मुझे समझाते हुए कहा, “तुम यूँ ही परेशान होती हो। एक ही बेटा है हमारा, अगर पढ़ाई में अच्छा नहीं भी कर पाया तो व्यापार करवा देंगे।” यह बात उन्होंने अकेले में कही होती तो भी ठीक था, पर उन्होंने यह श्रुत के सामने कहा और जनाब मस्त हो गये। जहाँ सब बच्चे इंजीनियरिंग और मेडिकल की तैयारी में जुट गये थे, वहीं हमारे सुपुत्र रात को बारह-एक बजे तक पार्टियाँ कर रहे थे। पैसे पर भी कोई रोक-टोक नहीं थी। मैं न देती तो पापा तो थे ही। मैं पार्थ को पैसे देने से मना करती तो वह कहते, “छुट्टियों भर की बात है। एक बार स्कूल खुल गये तो फिर किसे फुरसत है पार्टी करने और घूमने-फिरने की।” कई बार मुझे शक भी हुआ कि वह पार्टी से शराब पीकर लौटा है, लेकिन पार्थ से इस बारे में बात करने का कोई फायदा नहीं था।
भाई की दृढ़ इच्छा शक्ति और लगन से वह दिन भी आ गया जब उसे अमेरिका जाने का मौका मिला। उसकी मेहनत और काम से खुश हो कर कंपनी ने उसे एक विशेष प्रोजेक्ट के लिए अपने अमेरिका स्थित आँफिस भेजने का निर्णय लिया। प्रोजेक्ट दो साल का था पर भाई को विश्वास था कि वह इन दो सालों में वहाँ अपनी जगह बना लेगा। उसका भारत वापस लौटने का कोई विचार नहीं था।
अभीत अमेरिका जाने के एक हफ्ते पहले बैंगलोर से सब कुछ समेट कर मेरे पास आ गया था। यह हफ्ता कहाँ निकल गया, हमें पता ही नहीं चला। पहले दो-तीन दिन तो हमने उसके लिए खरीददारी की। बाद में हम दो दिन पापा के पास रहने गये। मैं शादी के बाद पहली बार वहाँ रहने गई थी। न तो कभी जरूरत महसूस हुई, न पापा ने ही कभी रुकने को कहा। हर पन्द्रह-बीस दिन में मैं घंटे-दो घंटे को उनके पास हो आती थी। घर का काफी सामान तो माँ के सामने ही बिक गया था। मेरी शादी के बाद पापा बचा सामान भी वक्त-बे-वक्त बेचते रहते। घर की हालत मेरी शादी के पहले ही काफी खराब हो गई थी। दीवारों पर से पेंट उतर कर जगह-जगह प्लास्टर झाँकने लगा था और अब तो कई स्थानों पर प्लास्टर ने भी दीवारों का साथ छोड़ दिया था। खाली कमरे और ढहती दीवारें घर को खंडहर का रूप दे रहे थे। उस घर को देख कर मुझे बहुत तकलीफ होती थी। मेरी माँ ने सारी जिन्दगी उसे सजा-संवार कर रखा था। बुरा वक्त और खराब स्वास्थ के बावजूद वह रोज़ पूरे घर में झाड़ू-पोंछा करती, दरवाजे-खिड़की-अलमारी झाड़ती। इस घर से मेरी बहुत सारी खट्टी-मीठी यादें जुड़ी थी। मैं जब भी जाती, उसे थोड़ा व्यवस्थित करने की कोशिश करती। मैंने और भाई ने कई बार प्रयास किया कि घर की कुछ मरम्मत करवा दें पर पापा लड़-झगड़ कर मजदूर को भगा देते। यदि हम घर का कुछ जरूरी सामान ला कर रखते तो वह हमारे जाते ही उसे आधे-पौने दामों पर बेच देते। थक-हार कर हमने घर और पापा दोनों को ही उनके हाल पर छोड़ दिया। पापा को तो वैसे भी किसी भी बात से फर्क नहीं पड़ता था। वह बूढ़े हो गये थे और स्वास्थ भी काफी खराब हो गया था, पर पीने में अभी भी कोई कमी नहीं आयी थी। भाई उनकी वित्तीय जिम्मेदारी उठाता था। वह पैसे सीधे पापा को न देकर मुझे देता था, फिर भी वह कोई न कोई जुगाड़ कर के अपनी दारू की व्यवस्था कर ही लेते थे।
पापा के घर से लौटते समय हम भाई-बहन बहुत प्रसन्न थे। एक लम्बे समय के बाद हमने इतना वक्त एक साथ गुजारा था। मैं भाई के लिए बहुत खुश थी, पर कहीं अंदर यह भी महसूस हो रहा था कि उसके चले जाने से मेरा मायका खत्म हो जायेगा। पापा का होना न होना एक बराबर ही था। भाई बिन कहे ही मेरे मन की बात समझ गया। मेरा हाथ अपने हाथों में लेते हुए उसने कहा, “आप परेशान मत हो। मैं कहीं भी रहूँ, आप के करीब रहूँगा। जरूरत के समय आप हमेशा मुझे अपने पास ही पाओगी। मैं एक बार वहाँ पहुँच कर ठीक से बस जाऊँ फिर आप लोग मेरे पास आना। हम अमेरिका साथ में ही घूमेंगे।” अचानक वह शांत हो गया और फिर गंभीर स्वर में उसने मुझसे कहा, “दी, आप खुद बहुत समझदार हो, आप से क्या कहूँ पर आप श्रुत पर थोड़ी सख्ती करो। मुझे लगता है वह गलत रास्ते की ओर मुड़ रहा है। अभी ज्यादा दूर नहीं गया है। आप उसे वापस ला सकती हो और मेरा विश्वास है आप यह कर लोगी।” ऐसा लगा जैसे मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई हो। इसका अहसास तो मुझे भी हो रहा था पर स्थिति इतनी गंभीर हो गई है कि चार दिन को आये भाई ने भी भांप लिया। आज श्रुत की आदतों को लेकर मेरा शक यकीन में बदल गया। मैंने खिसियाई सी मुसकुराहट के साथ कहा, “मैं तेरी बात का ध्यान रखूँगी।”
अभीत के जाने का समय भी आ गया। मैं और पार्थ उसे हवाई अड्डे छोड़ने गये। उसे विदा करते समय मेरी आँखें नम हो गई। चेहरे पर मुसकुराहट, आँखों में आँसू और दिल में उदासी लिए मैंने उसे विदा किया। लौटते समय पार्थ मुझे दिलासा देने की कोशिश करते रहे। उन्होंने कहा, “परेशान मत हो, जब कहोगी तब तुम्हें तुम्हारे भाई से मिलवा लाऊँगा।” चेहरे पर एक फीकी सी मुसकान लिए मैंने कहा, “इतना भी आसान नहीं है, बहुत दूर जा रहा है वह।” वह हँस कर बोले, “चलो, तुम्हारा मूड अच्छा करता हूँ।” कह कर उन्होंने गाड़ी की गति बढ़ा ली। मैं मुसकुराने लगी। “देखा, मैं जानता था।” कहते हुए उन्होंने गाड़ी की रफ्तार और तेज कर ली। मेरे टोकने पर वह बोले, “अरे! सड़क खाली पड़ी है। तुम घबराओ मत बस सफर का मजा लो।” उन्होंने संगीत की ध्वनि तेज की और गाड़ी की रफ्तार बढ़ा ली। रात का समय था, सड़क खाली पड़ी थी, गाड़ी 120 की गति से भाग रही थी और मेरा पसंदीदा गीत बज रहा था। दस मिनट बाद हम उस सड़क पर थे जिस पर फ्लाईओवर बन रहा था। सड़क खराब स्थिति में थी, निर्माण का सामान इधर-उधर बिखरा पड़ा था। सड़क के दांई ओर एक-दो अस्थाई तम्बू लगे थे। शायद मजदूरों ने अपने रहने के लिए लगाये थे या फिर सामान आदि रखने के लिए। मैंने एक बार फिर टोकते हुए कहा, “पार्थ, गाड़ी धीरे कर लो। सड़क खराब है और सामान भी बिखरा है।” उन्होंने मेरी बात को अनसुना कर दिया। तम्बू से कुछ दूरी पर बायीं तरफ एक नल लगा था। जिसके पास लगभग सात-आठ साल का एक लड़का हाथ में प्लास्टिक का कनस्तर लिए खड़ा था। पहले तो वह दूर से आती गाड़ी को देख शांत खड़ा रहा, फिर अचानक न जाने क्या सोच कर वह सड़क पार करने के लिए दौड़ पड़ा। मैंने घबरा कर कहा, “पार्थ वह लड़का!” पार्थ ने जोर से ब्रेक लगाते हुए गाड़ी को दाहिनी तरफ घुमाया पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। तेज गति में गाड़ी घुमाने से वह कुछ असंतुलित हो गई और निर्माणाधीन पुल से जा टकराई। पुल से बाहर की ओर निकल रही एक सरिया गाड़ी का शीशा तोड़ते हुए मेरे सीने के पार हो गई। मैं दर्द में चीख उठी। पार्थ ने बिना मेरी तरफ नजर डाले घबरा कर कहा, “वह लड़का कहाँ गया? लगता है डर कर भाग गया। क्या तुमने उसे वापस जाते हुए देखा?” मैंने दर्द में चीखते हुए कहा, “पार्थ वह लड़का हमारी गाड़ी के नीचे है और सरिया मेरे सीने के पार।” उसने एक बार फिर मेरी बात को अनसुना करते हुए गाड़ी का दरवाजा खोला। गाड़ी के नीचे का दृश्य देख कर उसके चेहरे का रंग उड़ गया। उसने बिना मेरी तरफ नजर घुमाये कहा, “चलो, जल्दी करो। यहाँ से भाग चलते है।” इससे पहले की मैं कुछ कह पाती उसने अधीर हो कर मेरी तरफ देखा। मुझे देख कर उसके होश उड़ गये। तभी आवाजें सुन कर, दो मजदूर तम्बू से बाहर आ गये। उन्हें देख वह बेचैन हो कर बोला, “द्रौपदी, ऐसी हालत में तुम यहाँ से जा नहीं सकती और वह लोग तुम्हें कुछ कहेंगे भी नहीं पर मुझे तो वह मार ही डालेंगे। मैं यहाँ से निकलता हूँ।” मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा, “कहाँ जा रहे हो? मेरी मदद करो।” उसने हाथ छुड़ाते हुए कहा, “मैं क्या तुम्हारी मदद करूँ, मैं तो खुद ही मुसीबत में हूँ। देख नहीं रही, दो आदमी इसी तरफ आ रहे हैं। हो सकता है आस-पास और भी हों। मुझे तो वह जिन्दा ही जला देंगे।” मैंने उदास मन से कराहते हुए कहा, “और मैं? मेरा क्या होगा, पार्थ?”
क्या पार्थ मेरी सहायता करेगा या वह अपनी जान बचायेगा? क्या मैं इस दुर्घटना से बाहर आ पाऊँगी या यही मेरा अंत है? मेरे जीवन के पाँच प्रमुख पुरुषों में से कौन करेगा मेरी मदद?
जानने के लिए पढ़ें मेरी कहानी वेदना का तीसरा और अंतिम भाग…….
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मैंने गणित में एम.एस.सी एवं कम्पयूटर कोर्स किया और कुछ समय तक एक साँफ्टवेयर प्रोग्रामर की तरह कार्यरत रही। मैं पिछले पाँच सालों से कहानियाँ व लेख लिख रही हूँ। मेरी दो किताबें, एक नई सुबह (10 लघु कहानियों का संग्रह) और बोझ (एक लघु उपन्यास) प्रकाशित हो चुकी हैं। दोनों ही किताबें Amazon व Flipkart पर उपलब्ध हैं। कुछ कहानियाँ और लेख आँन लाइन व पत्रिकाओं में भी छपी हैं। लगभग एक साल से मैं इस वेब साइट से जुड़ी हुई हूँ और मेरी कई कहानियाँ यहाँ छपी हैं। आप सभी से प्रोत्साहन की आशा करती हूँ।
Second part was also amazing just like this first part.Waiting eagerly for the next part
कहानी अच्छी जा रही है।
अप्रत्याशित रूप से मोड़ लिया है। ठीक भी है, किसी की भी जिंदगी सीधी तरह से कहां चलती है..!