“अदला-बदली” निधि जैन स्टोरी – Nidhi Jain New Story

अदलाबदली – New Hindi Story

साल भर की कड़ी मेहनत और दादी के आशीर्वाद से मेरा दाख़िला भारत के श्रेष्ठत्म मैनेजमेंट कॉलेजों में से एक में हो गया। मैं अपनी इस उपलब्धि पर फूली नहीं समा रही थी। पापा ने मुझे सीने से लगाते हुए कहा “हमें तुम पर गर्व है।” परिणाम आने के एक हफ्ते बाद ही मुझे दिल्ली के लिए निकलना था। दिल्ली मेरे लिए कोई अनजान शहर नही था। मैंने इसी शहर में रह कर दिल्ली यूनिवर्सिटी से बी.ए. करा था। इन तीन सालों में मैं हमेशा अकेले ही आती-जाती रही थी। पहली बार पापा छोड़ने गये थे। मॉ तनु की वजह से नहीं जा पायी थीं। इस बार मॉ-पापा और तनु तीनों ही छोड़ने जाना चाहते थे। मैं खुश थी कि पहली बार हम चारों कही साथ में जायेगें और इसी बहाने हम दिल्ली भी घूम लेगें। मैंने न जाने कितने सपने बुन लिए थे, पर जाने के एक दिन पहले तनु ने जिद्द पकड़ ली कि उसको नहीं जाना। हमेशा की तरह इस बार भी उसकी वजह से सबका कार्यक्रम रद्द हो गया। पापा ने अफसोस जाहिर करते हुए कहा “तुम तो जानती हो बेटा तुम्हारी बहन को हमारी ज्यादा जरूरत है। भगवान ने उसके साथ अन्याय किया है। तुम हर तरह से सक्षम हो। अपने आप भी सब कर सकती हो।” ठीक ही कहा उन्होंने, मैं सब संभाल सकती थी। फिर दिल्ली तक अकेले जाना तो मेरे लिए कोई बड़ी बात नही थी। 

तनु मेरी छोटी बहन, हम सब की लाड़ली। मैं उससे करीब ४ साल बड़ी थी।  उसके जन्म पर हम तीनों ही बहुत खुश थे पर दादी का मन उदास हो गया था। पहला कारण था कि बेटा नही हुआ। उन्होंने मॉ पर नाराज़ होते हुए कहा था “पहली बेटी तो ठीक थी पर अब क्या बेटियों की लाइन लगायेगी।”  दूसरा उनका मानना था कि मेरी बड़ी का हिस्सा बाँटने आ गयी। यह बात मेरी समझ में आज तक नहीं आयी कि लड़की है तो वह हिस्सा बाँटेगी और अगर लड़का होता तो……. 

तनु के आने से सबसे ज्यादा खुश मैं थी। मॉ-पापा के अलावा मैं किसी को भी उसे छूने तक नहीं देती। मुझे इंतजार था उस दिन का जब वह मेरे साथ बाहर बागीचे में दौड़-दौड़ कर खेलेगी। वह अपनी गोल-गोल आँखें खोल कर मुझे टुकुर-टुकुर देखती, मेरे पास आते ही अपने हाथ-पैर चला कर खुश होती। 

तनु के जन्म को एक साल हो गया था। उसका पहला जन्मदिन हमने खूब धूम-धाम से मनाया। सभी जान-पहचान वाले व रिश्तेदार उस दावत में शामिल हुए। तनु ने अभी तक चलना तो दूर अपने पैरो पर खड़ा होना भी शुरू नहीं किया था। उसको देख कर लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। कोई कहता “अरे! डाक्टर को दिखाओ। साल भर की हो गयी अभी तक दो मिनट खड़ी भी नहीं होती।” किसी ने कहा ‘”परेशान होने की बात नही है। कुछ बच्चे देर से ही चलते है।”  नियमित जॉच के दौरान बच्चों के डाक्टर ने भी मॉ-पापा को समझाते हुए कहा “बच्ची पूरी तरह से स्वस्थ है। इसका विकास भी सही तरह से हो रहा है। जल्द ही चलने भी लगेगी। आप लोग बेकार ही परेशान हो रहे है। मैने बहुत से बच्चे देखे है जो डेढ़-डेढ़ साल पर चलते है।”

बीतते समय के साथ मॉ-पापा के साथ-साथ दादी  की भी  बेचैनी बढ़ती जा रही थी। तनु अब चौदह महीनों की हो गयी थी। पापा ने एक हड्डियों के विशेषज्ञ को दिखाया। उन्होने तनु के पैरो की जॉच करके कुछ दवाएँ व एक विशेष तेल से दिन में तीन-चार बार मालिश बताई। मॉ-पापा सब कुछ भूल कर तनु में व्यस्त हो गये। हँसने-खिलखिलाने वाला परिवार अब हर समय तनाव में रहने लगा। पापा अपने दफ्तर के काम में व्यस्त रहते और बचे समय को वह तनु के साथ व्यतीत करते। मॉ हर समय तनु की देख-भाल में लगी रहती। मैं जब भी कुछ कहने का प्रयास करती तो दोनो ही यह कह देते “तुम तो बड़ी हो न और पूरी तरह से समर्थ भी। खुद कर सकती हो।” पॉच साल की उम्र में ही मुझे बड़ा बना दिया गया। मैं उदास मन से दादी के पास चली जाती। वह मुझे अपने पास सुलातीं। रोज रात परियों की कहानियॉ सुनतीं। मेरे बालों में तेल लगाती और वह सब करती जो एक मॉ को करना चाहिए था। दिन-पर-दिन मैं मॉ-पापा से दूर हो रही थी और दादी से मेरा लगाव बढ़ रहा था। वह लोग तनु में इतना व्यस्त रहते कि उनको इस बात का अहसास भी नहीं हुआ। मॉ-पापा से मेरी दूरियॉ कितनी भी हो गयी थी पर तनु के लिए मेरा प्यार कभी कम नहीं हुआ।

तनु का इलाज शुरू किये एक साल हो गया था पर उसके पैरो में कोई सुधार नहीं था। पापा-मॉ ने तय किया कि वह तनु को दिल्ली के बड़े अस्पताल में दिखाएँगे। मुझे दादी के पास छोड़ कर वह लोग दिल्ली चले गये। उन लोगो के जाने के पहले से ही दादी की तबियत ढीली चल रही थी। अचानक एक दिन कुछ ज्यादा ही खराब हो गयी।  उन्होंने मुझे अपने पास बैठा कर कहा “मैं कहीं भी रहूँ, फिर भी हमेशा तेरे पास रहूँगी। तू मेरी उपस्थिति हमेशा महसूस करेगी। भगवान तुझे हिम्मत दें।” मैं छ: साल की मासूम बच्ची उनकी बातों का अर्थ नही समझ पा रही थी। बस उनसे बार-बार यही पूछती रही “दादी आप कहॉ जा रही हो? आप मत जाओ। आप चली गयी तो मैं किसके साथ सोऊंगी। आप मुझे भी अपने साथ ले चलो।” दादी ने मुझे अपनी बुझती आवाज़ में समझाया “तू मेरे साथ नहीं जा सकती। तुझे तो स्कूल जाना है न। पढ़-लिख कर बड़ी अफ़सर बनना है। मेरा आशीर्वाद हमेशा तेरे साथ रहेगा। तू मेरी रानी बेटी है। भगवान तुझे सब खुशियॉ दे।” देर रात तक मैं दादी का हाथ पकड़े बस यही कहती रही “दादी मत जाओ।” पता नहीं कब मेरी आँख लग गयी और मैं रोज की तरह दादी से चिपक कर सो गयी। 

सुबह  पापा, मॉ और तनु वापस आ गये। उन लोगों की आवाज़े सुन कर मैं जाग गयी। दादी मुझे छोड़ कर हमेशा के लिए जा चुकी थी। उन्हे उठा कर बाहर वाले कमरे में ज़मीन पर लिटा दिया गया। धीरे-धीरे रिश्तेदारों, पड़ोसियों और पापा-मॉ के जान-पहचान वालो की भीड़ बढ़ने लगी। मैं दादी का हाथ पकड़े वहीं बैठी रही। दादी के जाने का समय आ गया था। जब पापा सहित कुछ लोग दादी को उठा कर ले जाने लगे तो मैं दादी से चिपक कर रोने लगी। “दादी मत जाओ, मैं किस के पास सोऊंगी।” मॉ ने मुझे सीने से लगा लिया और सान्त्वना देने लगी।

दादी के जाने से मेरे जीवन में एक ख़ालीपन आ गया था। मैं पूरा समय उनके कमरे में गुमसुम बैठी रहती। मॉ बार-बार आ कर मुझे अपने कमरे में बुलाती। मैं कभी जाती और कभी नही। मॉ के लिए यह मुश्किल घड़ी थी वह न मुझे अकेले छोड़ना चाहती थी और न ही तनु को। धीरे-धीरे मैं तनु के साथ ज्यादा वक्त बिताने लगी। कभी उसको रंग-बिरंगी किताबें दिखाती, कभी उसके खिलौने चलाती और कभी कहानी सुनाती, वह कहानियॉ जो दादी मुझे रोज रात सुनाती थी। मेरा तनु की ओर झुकाव देख कर मॉ एक बार फिर निश्चिंत हो गयी। उनका ध्यान फिर से सिर्फ और सिर्फ तनु पर हो गया। जैसे-जैसे मैं बड़ी हुई, मॉ-पापा की मजबूरी समझने लगी। मैं जानती थी वह मुझसे प्यार करते है पर तनु छोटी है और अपाहिज भी। अब मुझे उनकी उपेक्षा से फर्क नही पड़ता था।

दिल्ली के इलाज से तनु को कुछ खास फायदा नही हुआ। वहॉ के डाक्टर ने उसे एक विशेष तरह का जूता दिया जिसे पहन कर वह हम सब की तरह चल सकती थी। तनु को वह जूता पहनना बिल्कुल पसंद नही था। वह कही भी जाने को तैयार नही होती और  हर बात पर गुस्सा व जिद् करती। मॉ-पापा भी सहानुभूती व प्यार में वशीभूत हो कर उसकी हर बात मानते। मुझे हर बार अपना मन मारना पड़ता जैसे कि इस बार दिल्ली का कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। मैं उन तीनों से बहुत प्यार करती हूँ । मुझे विश्वास है कि वह भी मुझ से प्यार करते है पर कभी-कभी बुरा लगता है, बहुत बुरा…………

 दाखिले की औपचारिकताएँ निर्धारित अवधि में पूरी करने के लिए मैं समय से दिल्ली पहुँच गयी। श्रेष्ठ कॉलेज में दाख़िला मिलने के बावजूद मन उदास था, कही एक कसक सी थी। मैं पलंग पर बैठी अपने मोबाइल पर मैसेज देख रही थी कि एक चहकती हुई आवाज़ मेरे कानों में पड़ी “हैलो, मैं इशिता अग्रवाल हूँ। मैं उदयपुर से आयी हूँ। सामने वाला कमरा मेरा है।” मैने सर उठा कर देखा और देखती ही रह गयी। उसने एक बार फिर कहा “हैलो” मैने अपने को संभालते हुए कहा “हैलो, मैं इति चोपड़ा, इंदौर से। तुम से मिल कर अच्छा लगा।” वह मेरे गले लगते हुए बोली “लगता है हमारी अच्छी निभेगी।” मुझे कुछ अटपटा लगा। अभी-अभी तो मिले हैं फिर इतनी आत्मीयता, कुछ अजीब था। “खाने के लिए साथ में चलेंगें” कहते हुए वह अपने कमरे में चली गयी। मैं स्तब्ध खड़ी उसे जाते हुए देखती रही। 

मेरा दिमाग बिल्कुल भी काम नहीं कर रहा था। कोई दो लोग जो एक दूसरे से किसी भी तरह से संबंधित नही है, एक शक्ल के कैसे हो सकते है। मैंने सूटकेस खोल कर अपने साथ लायी फैमिली फोटो निकाल ली। कुर्सी पर बैठ, मैं एक टक उस तस्वीर को देखती रही। इशिता भी मॉ की तरह लम्बी, गोरी, बेहद खूबसूरत। हू-बहू एक शक्ल जैसे जुड़वाँ बहने, बहनें या मॉ-बेटी ???? क्या यह मॉ की ????  कभी नहीं, ऐसा सोचना भी पाप था। मॉ पवित्रता की मूर्ति थी। अपने परिवार पर समर्पित एक धार्मिक प्रवर्ति की महिला। मॉ-पापा की जोड़ी एक आदर्श जोड़ी थी। मैने आज तक उनको कभी एक छोटी सी भी बात पर एक दूसरे से उलझते नही देखा। उनका प्यार हम सब के लिए मिसाल था।

   दरवाज़े पर जोर की दस्तक हुई और मैं चौक कर अपने ख्यालो से वापस आ गयी। इशिता खाने के लिए बुलाने आयी थी। मैने झट से तस्वीर कपड़ों के बीच दबा दी और सूटकेस में ताला लगा दिया। मैं नही चाहती थी कि वह इस तस्वीर को देखे। 

इशिता बहुत ज्यादा बात करती थी। बहुत कम समय में उसने अपने बारे में बहुत कुछ बता दिया। उसे क्या पसंद है और क्या नही। वह अपने मॉ-पापा की इकलौती लड़की है और उनकी बेहद लाड़ली। उसकी बाते सुन कर मुझे समझ आ गया कि वह लाड़-प्यार में सिर चढ़ी लड़की है। इस बात से बे-परवाह कि मैं उस की बात पर ध्यान दे भी रही हूँ या नहीं। वह बिना रुके बोले जा रही थी। मेरे दिमाग में तो और बहुत कुछ चल रहा था। मॉ की शक्ल इशिता से इतनी ज्यादा कैसे मिलती है। मॉ का तो दूर-दूर तक कोई रिश्तेदार भी नही है और फिर यह अग्रवाल और हम चोपड़ा। दादी कहती थीं कि “इस धरती पर हर इंसान का एक हमशक्ल है जो उसके जीवनकाल में कभी न कभी उसके सामने ज़रुर आता है।” यही सोच कर मैने अपने मन को शांत कर लिया। 

एक दिन इशिता ने बातचीत में बताया कि “मेरे पापा का हर दो-तीन साल में तबादला हो जाता है। इसलिए मैं हिंदुस्तान के कई शहर देख चुकी हूँ।” मैने कहा “तब तो तुम को बहुत परेशानी होती होगी। हर थोड़े दिनो में नई जगह, नया स्कूल और नये दोस्त?” वह खुश होते हुए बोली “बिल्कुल नही, मुझे तो नये-नये दोस्त बनाना बहुत अच्छा लगता है । मैं अपने पुराने दोस्तों के सम्पर्क में भी हमेशा रहती हूँ। मेरे दोस्तों की गिनती बहुत ज्यादा है।” मेरी पहेली आज भी सुलझी नहीं थी। मैंने उससे पूछा “तुम्हारा जन्म कौन से शहर में हुआ था?” वह मुस्कुरा कर बोली “तुम्हारे शहर, इंदौर में। वहॉ कोई जागरानी हॉस्पिटल है, उसी में मेरा जन्म हुआ। मेरे नाना-नानी उस समय वहीं पर थे। मुझे जन्म के समय पीलिया हो गया था, इस लिए कुछ दिन मुझे इनक्यूबेटर में रखा गया।” 

सब कुछ बहुत अजीब था। हम दोनो का ही जन्म एक दिन के अंतर पर जागरानी हॉस्पिटल, इंदौर में हुआ। उसकी शक्ल मेरी मॉ से मिलती थी पर मेरी नहीं। तो क्या हम दोनो आपस में बदल गये। क्या इशिता की मॉ मेरी मॉ………………..। मेरा मॉ से मिलना बहुत जरूरी हो गया था। मैं जानना चाहती थी कि क्या मैं जन्म से लेकर घर आने तक कभी एक मिनट के लिए भी उनसे अलग हुई थी? अगले हफ्ते दशहरे की वजह से कॉलेज में एक दिन की छुट्टी थी। शनिवार-इतवार मिला कर तीन दिन के लिए मैने इंदौर जाने का प्रोग्राम बना लिया।

 मॉ-पापा मुझे देख कर आश्चर्यचकित थे। पापा ने सीने से लगाते हुए कहा “अच्छा हुआ आ गयी। तुझे अकेले भेज कर अच्छा नही लग रहा था।” भोजन के बाद हम सब गप्पे मारने लगे। मैने खुश होने का नाटक करते हुए कहा “मॉ, मेरे सामने वाले कमरे में जो लड़की रहती है उसका जन्म मुझ से एक दिन पहले ही इंदौर के जागरानी हॉस्पिटल में हुआ है।” मॉ ने खुश होते हुए कहा “अरे वाह! यह तो बड़ा अच्छा संयोग है। ऐसा तो बहुत कम ही होता है कि आप ऐसे व्यक्ति से मिलें। वह तो तुम्हारी अच्छी दोस्त बन गयी होगी?” मैने कुछ बुझे मन से कहा “बहुत अच्छी।” मॉ ने मेरी बात पर ध्यान नही दिया और पापा की ओर रुख करते हुए बोली “याद है आपको शुरू के दो-तीन दिन इसके लिए कितने कठिन थे। इसे इनक्यूबेटर में रखना पड़ा था। बचने की भी कोई उम्मीद न थी। वहॉ से निकल कर जब यह मेरी गोद में आयी तो इसका रंग ही बदल गया था। जन्म के दिन तो लगा कि यह मुझ पर गयी है पर बाद में सब ने कहा कि अपनी दादी पर है।” यह सुन कर मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गयी। मैं मध्यम कद की, सावली एकदम साधारण दिखने वाली लड़की थी। मॉ सुन्दरता की मूर्ति। मुझे हमेशा यह अफसोस रहा कि मेरा रंग-रूप अपनी मॉ पर क्यों नही गया। मुझे विश्वास हो गया कि मैं अस्पताल में बदल गयी थी। इशिता की मॉ ही मेरी मॉ हैं। मेरे अंदर उनसे मिलने की तीव्र इच्छा जाग उठी। 

मैं दिल्ली वापस जाने के लिए निकल ही रही थी कि मॉ ने आ कर सीने से लगा लिया। पता नहीं क्यों मेरे अंदर कोई भावनाये नही आयी। क्या पल भर में सब कुछ बदल गया था? मॉ ने प्यार से कहा  “इस बार तू कुछ बुझी-बुझी सी लग रही थी। कोई परेशानी है क्या?  हम तुम्हें छोड़ने नहीं जा पाये थे इस लिए नाराज़ हो? तुम्हारी बहन की वजह से कई बार हम तुम पर ध्यान नहीं दे पाते। तुम्हें समय से पहले ही बड़ा बना दिया। यह बात हमारे सीने में टीस की तरह चुभती है। हमेशा याद रखना, हम तुम्हे तनु जितना ही प्यार करते है। तुम हमारी पहली सन्तान हो। तुम ने मुझे मॉ बनने का सुख दिया है।” कहते हुए मॉ की आँखे नम हो गयी। मैं कुछ भी नही बोली। सभी भावनाओं से परे मैं दिल्ली के लिए निकल गयी।

  हॉस्टल पहुँची तो इशिता नही आयी थी। मैं चुपचाप अपने पलंग पर बैठ गयी। मेरी आँखों के सामने वह दृश्य घूमने लगे जिनमें इशिता अपनी मॉ से रोज घन्टो फोन पर बाते करती थी। उन दोनो का रिश्ता बहुत गहरा था। वह एक दोस्त की तरह बातें करते थे। हर विषय पर फिर चाहे वह सिनेमा हो, राजनीति, खेल, फैश्न या कॉलेज के लड़के-लड़कियॉ। वह किसी भी तरह की बात करने में न हिचकती और न ही शर्माती। उसकी मॉ की तरफ से भी उसको पूरा सहयोग मिलता। कभी-कभी तो मैं उनकी बातें सुन कर जलन महसूस करती। मेरे घर से तो हफ्ते में एक-दो बार ही फोन आता और वह भी हाल-चाल पूछ कर कॉट दिया जाता। अब जब मैं जान चुकी थी कि इशिता की मॉ मेरी है, मेरी बेचैनी बढ़ गयी थी। वह सब कुछ जो इशिता का है उस पर मेरा हक था। किस्मत ने मुझ से यह सब छीन कर एक ऐसे घर में पहुँचा दिया, जहॉ मेरी बात सुनने का न तो किसी के पास वक्त था, न इच्छा। 

अपने ही ख्यालो में उलझी न जाने मैं कितनी देर ऐसे ही बैठी रही। तभी अचानक इशिता मेरे कमरे में आयी। मेरे गले में अपनी बाहें डालते हुई बोली “हाय! कितनी देर हुई तुम्हें आये हुए?” इससे पहले की मैं कुछ कहती, वह मेरा हाथ पकड़ कर मुझे कमरे के बाहर ले जाने लगी “चलो, जल्दी से। मेरी मम्मी आयी हैं। मैं तुम्हें उनसे मिलवाना चाहती हूँ।” मैं स्तब्ध थी। कुछ समझ नही आ रहा था। मैं उनसे मिलना तो चाहती थी पर यूँ अचानक। ऐसी मुलाकात के लिए मैं तैयार नहीं थी। मैं उनसे पहली बार मिलूँगी। मिल कर कैसे कहूँगी कि इशिता नहीं मैं आपकी बेटी हूँ? यह सुन कर वह क्या कहेगी? मुझे सीने से लगा लेंगी…. तभी इशिता ने मुझे हिलाते हुए कहा “क्या सोच रही हो? मैं बाथरूम हो कर आती हूँ फिर चलते है।” उसके जाते ही मैने सूटकेस से मॉ की फोटो निकाली और एक किताब में छिपा ली। मैं और इशिता कैन्टीन की ओर चल दिए। रास्ते भर वह बिना रुके बोलती रही “नानी बहुत बीमार हैं इसलिए मम्मी देहरादून जा रही हैं। मैं भी उनके साथ जाना चाहती थी पर पढ़ाई की वजह से नही जा पा रही हूँ। छुट्टियों में जाऊँगी। तुम भी मेरे साथ चलना…….” 

 कैन्टीन लड़के-लड़कियों से पूरा भरा था। चारों ओर शोर-गुल हो रहा था। दरवाज़े पर ही मेरे कदम ठिठक गये। कोने की मेज पर एक महिला जीन्स-कुर्ती पहने, कंधे तक के बाल और बालों पर धूप का चश्मा चढ़ायें बैठी थी। इशिता मेरा हाथ खीचते हुए मेज पर जा पहुँची। मैने हाथ जोड़ कर “नमस्ते” कहा। इशिता ने मेरा परिचय करवाया तो उन्होने हाथ बढ़ा कर “हैलो” किया मैने भी हाथ आगे कर दिया। यह मेरी मॉ से मेरा पहला स्पर्श था। एक अजीब सा अहसास था जिससे वह बिल्कुल अंजान थी। छोटे कद की, सांवली, देखने में साधारण, पूरे समय अंग्रेजी में बात करने वाली और हाव-भाव से बेहद स्मार्ट। मेरी मॉ पूरी तरह से एक आर्मी अफ़सर की बीबी लग रही थी। दस मिनट औपचारिक बात-चीत करके वह जाने के लिए उठ खड़ी हुई। मैं उन्हे मॉ की तस्वीर दिखाने की हिम्मत ही नही कर पायी। तभी इशिता उन्हे रोकते हुए बोली “मम्मी मेरे पास मामी की एक किताब है। आप उन्हे दे देना।” यह कह कर वह भागती हुई वहॉ से चली गयी। 

हम दोनों वापस कुर्सी पर बैठ गये। दोनों ही खामोश थे। वह अंग्रेजी में बोली “तुम भी मेरी तरह कम बोलती हो या इशि बोलने का मौका ही नही देती।” कह कर वह हँस दी। मैने पूछा  “आप मेरी मॉ की तस्वीर देखना चाहेंगी?” उन्होने कुछ आश्चर्य से मुस्कुरा कर कहा “ज़रूर, अगली बार, अभी मुझे देर हो रही है। मैं देहरादून समय से पहुँचना चाहती हूँ।” मैने किताब में से फोटो निकाल कर उनके सामने रख दी और वह सकपका कर बोलीं “यह क्या मज़ाक है? यह तो इशिता की फोटो है……” मेरे पास वक्त कम था। मैं इशिता के आने से पहले अपनी बात पूरी करना चाहती थी। इशिता को बताना या न बताना मैं इन पर छोड़ना चाहती थी। मैंने उनकी आश्चर्य से भरी प्रतिक्रिया को बीच में ही रोकते हुए कहा “यह इशिता नहीं, मेरी मॉ की फोटो है या आप यह भी कह सकती हैं कि इशिता की मॉ की। मेरा जन्म इशिता के जन्म से ठीक एक दिन बाद जागरानी हॉस्पिटल, इंदौर में हुआ था। हम दोनो को एक ही समय पर इनक्यूबेटर कक्ष में रखा गया था।”  वह सदमे में थीं, इसलिए अंग्रेजी भूल कर हिन्दी में बोलीं “यह कैसे मुमकिन है? क्या इशिता को यह सब पता है? उसने यह तस्वीर देखी है?” मैने कहा “अभी तक तो नहीं।” वह हाथ जोड़ कर बोलीं “उसे यह फोटो कभी मत दिखाना। भूल कर भी यह बात उसे कभी न बताना। वह बहुत भावुक लड़की है। अपने पापा और मेरे लिए वह बहुत ही पोजेसिव है। वह यह सब सह नहीं पायेगी। तुम समझदार हो तुम सब संभाल लोगी।” मैने आँखो में आँसू भर कर उनसे कहा “मैं आप की बेटी हूँ और आप मेरी मॉ। क्या यह बात आपके लिए कोई मतलब नहीं रखती।” उन्होने सहज भाव से कहा “यह भगवान का अद्भुत खेल है। केवल इशिता ही मेरी बेटी है, और मैं सिर्फ उसकी मॉ।”

इशिता कैन्टीन में दाखिल हो चुकी थी। मैने कटाक्ष किया “आपकी बेटी आ गयी है।” उन्होंने एक बार फिर हाथ जोड़ लिए। शब्दों से तो कुछ नही कहा पर उनके चेहरे के भाव मुझसे दया की भीख मांग रहे थे। मेरी मॉ ने मुझसे पहली और शायद आखिरी बार कुछ मांगा था। मैंने बेटी होने का फर्ज पूरा किया। पलकें झपका कर मैंने उन्हे आश्वासन दिया कि  मैं इशिता को कभी कुछ नही बताऊँगी। मैने इशिता की नज़रों से बचा कर फोटो को किताब में रख लिया। इशिता ने अपनी मामी की किताब मॉ को सौंप दी। उसकी मॉ ने उसे सीने से लगा लिया। उनकी आँखो में आँसू थे। प्यार से इशिता के चेहरे पर हाथ फिराते हुए बोली “चलती हूँ। अपना ध्यान रखना। लव यू।”

इशिता और उसकी मॉ दो दोस्तों की तरह हाथ पकड़ कर गप्पे मारते हुए दरवाज़े की ओर चल दिए। मैं दोनो को जाते हुए देखती रही। दरवाज़े पर पहुँच कर उसकी मॉ ने  पलट कर मेरी ओर देखा। मुझे उनकी आँखो में अपने लिए कोई भावनाये नही दिखाई दी। वह वापस पलटीं और चली गयीं। उनके रूखे व्यवहार से मैं समझ गयी कि मेरी जगह सिर्फ और सिर्फ अपने मॉ-पापा के पास इंदौर में है। वह भले ही मुझे वक्त नही दे पाते,  कई बार मुझे नज़र अंदाज़ करते है पर पूरी दुनिया में केवल वही हैं जो मुझसे सच्चा प्यार करते है। मेरे अंदर उमड़ रहे शक के बीज आज समाप्त हो गये थे। मैने तय किया कि मैं मॉ और इशिता को कभी एक दूसरे से नही मिलने दूँगी। 

निधि जैन (पत्नी राजीव जैन 1981) 

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