“हादसा” Inspiring Story in Hindi with Moral
Inspiring Story in Hindi with Moral
Written By –
-निधि जैन
कल रात ही जानकी अपने मायके से एक हफ्ते बाद लौटी थी। सुबह जब दूध वाले ने घंटी बजाई तो उसने अलसाई आँखों से दरवाज़ा खोला। सामने वाले फ्लैट के दरवाज़े पर लगभग तीन साल की एक गोल-मटोल, बड़ी-बड़ी आँखों वाली लड़की खड़ी थी। जानकी ने जब उसकी तरफ देखा तो वह मुस्करा दी। उसकी आँखें चंचल और मुस्कान मन मोहनी थी। वह चहक कर बोली, “संदली, मेरा नाम संदली शर्मा है। तुम्हारा नाम क्या है?” जानकी हँस पड़ी, “जानकी, मेरा नाम जानकी प्रसाद है।” वह अपनी गोल-गोल आँखों को और गोल करती हुये बोली, “प्रसाद? भगवान जी वाला?” तभी संदली की माँ वहाँ आ गई। उसने जानकी को देख कर एक फीकी सी मुस्कान दी और संदली को लेकर अंदर चली गई।
जानकी को उसकी आँखों में एक अजीब सी उदासी दिखाई दी। दूध वाले ने बताया, “यह लोग अभी दो दिन पहले ही यहाँ आये हैं। इस बच्ची के पिता फ़ौजी थे। सुना है लड़ाई में मारे गये।” यह सुनते ही जानकी को एक झटका सा लगा। उसके सारे शरीर में झनझनाहट सी होने लगी। वह अन्दर आयी और कुर्सी पर बैठ गयी। उसने रूंधे गले से अपने पति को बताया, “सामने वाले घर में लोग आ गये हैं। बच्ची के पिता सरहद पर शहीद हो गये। अभी उनकी उम्र ही क्या थी। उनकी पत्नी तो मुश्किल से २७-२८ साल की होगी और उस बच्ची ने तो इतनी कम उम्र में ही अपने पिता को खो दिया।” कहते हुए जानकी रो पड़ी। उसके पति ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा, “प्रभु की इच्छा, क्या कर सकते है। दुनिया ऐसे ही चलती है। तुम्हें नहीं लगता तुम उन अंजान लोगों के लिए कुछ ज्यादा ही परेशान हो रही हो?” जानकी ने आँसू पोंछते हुए कहा, “पता नहीं क्यों, पर वह बच्ची एक नजर में ही अपनी सी लगने लगी। जैसे कोई पुराना रिश्ता हो।” जानकी के पति ने उसकी बातों को अनसुना करते हुए अपना ध्यान अखबार पर केन्द्रित कर लिया।
Inspiring Story in Hindi with Moral
जानकी के परिवार में तीन लोग थे, वह, उसके पति महेश और उसका बेटा कुश। महेश बहुत ही शांत स्वभाव के व्यक्ति थे। उनकी एक निश्चित दिनचर्या रहती थी। सुबह का समय अखबार पढ़ने में, दिन दफ्तर में और शाम टी.वी पर समाचार देखने में निकल जाता। बात भी वह नपे-तुले शब्दों में ही करते। उन्हें कहीं आने-जाने का भी कोई शौक नहीं था। हर जगह जानकी अकेले ही जाती। चाहे फिर वह कोई पारिवारिक समारोह हो या बेटे के स्कूल का कार्यक्रम। कुश का स्वभाव भी अपने पिता की तरह कम बात करने का था। वह पढ़ाई में तेज होने के साथ-साथ खेल-कूद में भी अग्रिम था। जानकी की बैठक कुश के मैडल व कप से भरी रहती। रोज शाम को कुश के पिता उससे दिन भर की पढ़ाई का पूरा ब्योरा लेते और हर छुट्टी के दिन उसे पढ़ाते।
जानकी को इस घर में रहते पाँच साल हो गये थे। वह इस सोसाइटी में आने वाले पहले चंद लोगों में से एक थी। हर मंजिल पर केवल दो ही घर थे और जानकी की मंजिल वाला दूसरा घर हमेशा खाली ही पड़ा रहा। गार्ड कभी-कभी आ कर सफाई करवा देता था। जानकी के पूछने पर उसने बताया “यह घर किसी फ़ौजी ने ख़रीदा है पर वह डूयटी पर कहीं और रहते है।” पाँच साल इंतजार के बाद जानकी के पड़ोस में कोई आया था पर खुश होने की जगह उसका दिल उदास था।
आज जानकी का मन काम में नहीं लग रहा था। बार-बार उसकी आँखों के सामने संदली की चमकती और उसकी माँ की बुझी आँखें आ रही थीं। महेश के दफ्तर जाते ही उसने कुछ इडली और चटनी एक ट्रे में रखी और संदली के घर की घंटी बजा दी। दरवाज़ा संदली की माँ ने खोला, “मैं जानकी हूँ। सामने वाले घर में रहती हूँ। इडली बनाई थी, तुम लोगों के लिए लायी हूँ।” उसने एक फीकी सी मुस्कान के साथ कहा “मैं कनिका हूँ। अन्दर आइये।”
ड्राइंग रूम में यहाँ-वहाँ गत्ते के डिब्बे बिखरे पड़े थे, कुछ बन्द और कुछ अधखुले। कोने में एक छोटी मेज पर फ़ौजी की तस्वीर रखी थी। तस्वीर पर कोई माला नहीं थी पर यकीनन वह संदली के पिता थे। संदली भागती हुई आयी और “जानकी!” कहते हुए उससे लिपट गयी। वह जानकी को देख कर ऐसे खुश थी जैसे वह कोई पुराने दोस्त हो। जानकी भावुक हो गयी। कनिका ने टोकते हुए कहा, “संदली, जानकी नहीं आन्टी कहते हैं।” यहाँ आने के बाद से जानकी पहली शख़्स थी जो उन लोगों के घर आयी थी। शायद इसीलिए संदली उसके आने से बहुत उत्साहित थी। उसने फोटो की तरफ इशारा करते हुए कहा, “जानकी, यह मेरे पापा हैं। बहुत बहादुर हैं। मॉ कहती है कि वह हम सब की रक्षा करते हैं।”
जानकी ने कनिका की तरफ देखा। उसकी आँखों में आँसू थे, जिन्हें छुपाने की वह पूरी कोशिश कर रही थी। संदली ने जानकी से कहा “तुम जाना मत। मैं तुमको अपनी ड्राइंग बुक दिखाती हूँ।” वह भागती हुई अंदर चली गयी। जानकी ने कनिका के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “तुम्हें आँसू छुपाने की जरूरत नहीं। बह जाने दो इन्हें, बेहतर महसूस करोगी। मुझे अपनी बड़ी बहन समझो।” कनिका फ़फ़क पड़ी। जानकी ने उसे गले लगा लिया। संदली ने अपने छोटे-छोटे हाथ फैला कर जानकी और कनिका दोनों को पकड़ लिया। उस पल से जानकी, कनिका और संदली दोस्त बन गये। तीनों के बीच एक अनोखा रिश्ता कायम हो गया।
कनिका एक प्राइवेट कम्पनी में नौकरी करती थी। संदली उसकी अनुपस्थिति में जानकी के पास ही रहती। इसी कारण वश जानकी और संदली एक दूसरे के और करीब आ गये। कहीं न कहीं जानकी को संदली में अपना बचपन दिखाई पड़ता था।
समय अपनी रफ्तार से चलता रहा और कुश इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए दूसरे शहर चला गया। जानकी के लिए यह मुश्किल समय था, पर संदली के कारण उसका मन लगा रहता। संदली वैसी ही चंचल और बातूनी थी जैसी की जानकी शादी के पहले हुआ करती थी। दोनों के शौक भी मिलते थे, वह कभी फिल्म देखने जाते और कभी चाट खाने। कनिका को न तो फिल्मों में रुचि थी, न चाट में। वह कई बार संदली की डॉट भी लगाती, “ढंग का खाना तो तुम से खाया नहीं जाता बस चाट-पकौड़े खिला लो।” संदली दबी ज़ुबान से कहती, “मैं थोड़ी न खाती हूँ, वह तो जानकी जिद् करती हैं।” छुट्टी वाले दिन कई बार मॉ-बेटी शहर में होने वाले नाटक या शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम देखने जाते। संदली का वहॉ बिल्कुल भी मन नहीं लगता, पर अपनी मॉ की खुशी के लिए वह साथ में जाती। कभी तीनों साथ में बाजार जाते। संदली और कनिका के आ जाने से जानकी की जिंदगी में एक रौनक आ गयी थी।
कुश की इंजीनियरिंग पूरी हुई और वह एम,बी.ए. करने अहमदाबाद चला गया। एक रात अचानक महेश को दिल का दौरा पड़ा। जानकी ने भाग कर कनिका के घर की घंटी बजाई। घबराहट के कारण वह अपनी बात ठीक से कह भी नहीं पा रही थी। कनिका ने उसे हिम्मत दिलाई और अस्पताल फोन करके एम्बुलेंस बुला ली। उसने अपने पर्स में पैसे रखे और वह लोग अस्पताल के लिए निकल गये। दुर्भाग्यवश अस्पताल पहुँचने से पहले ही महेश की मौत हो गयी। कुश ने आ कर अपने पिता के सभी अंतिम कार्य पूरी ज़िम्मेदारी के साथ पूर्ण किये। जाने से पहले वह अपनी मॉ को ले कर बहुत परेशान था। कनिका ने उसे आश्वासन दिया कि वह निश्चिंत हो कर जाये, और पूरा मन लगा कर अपनी परिक्षांए दे। वह माँ का पूरा ध्यान रखेगी, साथ ही उसके पापा के पेंशन और बैंक के सभी काम भी करवा देगी।
कुश की पढ़ाई पूरी हुई और वह बैंगलोर में नौकरी करने लगा। संदली ने अपने ही शहर में बी.एस.सी. में दाख़िला ले लिया। कुश चाहता था कि माँ अब उसके साथ चल कर रहे, पर जानकी इस बात के लिए तैयार नहीं थी। वह बीच-बीच में उसके पास जाती और डेढ़-दो महीने रह कर वापस आ जाती। इससे ज्यादा उसका मन वहाँ पर नहीं लगता था। संदली हर बार उससे लड़ाई करती, “जानकी, तुमने कहा था तुम एक महीने में आ जाओगी। बस बेटे से ही प्यार है। बेटी को भूल गयीं।” जानकी उसे मनाती, “वह अकेला है न और तेरे पास तो कनिका है।” वह झट से जवाब देती, “अरे माँ तो बहुत बोरिंग है। सारा दिन काम करती है और रात को अपना चश्मा लगा कर किताब पढ़ती रहती है। बात भी कितना कम करती है। बस ड़ाँटती रहती है। संदली यह नहीं किया, संदली वह नहीं किया। संदली यह क्यों किया, संदली वह क्यों नहीं किया।” जानकी उसकी बातें सुन कर हँसती। संदली अचानक ही गंभीर हो जाती और आँखें चमका कर कहती, “पर वह दुनिया की सबसे अच्छी माँ है। सबसे अच्छी। मैं उससे बहुत प्यार करती हूँ।”
संदली की बी.एस.सी पूरी हुई और उसने एम.एस.सी में दाख़िला ले लिया। इधर कुश को भी नौकरी करते तीन साल हो गये थे। जानकी चाहती थी कि वह अब उसकी शादी करके अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर दे। उसकी प्रबल इच्छा थी कि वह संदली को अपने घर की बहू बनाये। दोनों बच्चों के बीच उम्र का अन्तर करीब छ: साल होने की वजह से वह कभी हिम्मत नहीं कर पायी। उसे यह भी लगता था कि कुश अपने पिता की तरह बहुत ही शांत स्वभाव का है और संदली चंचल और बातूनी, ऐसे में यह मेल उचित भी होगा या नहीं। इस बार जब वह कुश के पास गई तो उसने स्पष्ट शब्दों में उससे कहा “मैं तुम्हारी शादी करने का विचार बना रही हूँ। यदि तुम को कोई लड़की पसंद है तो अभी बता दो नहीं तो मैं ढूँढना शुरू करूँ। बाद में मत कहना की पूछा नहीं।” कुश ने गंभीर होते हुए कहा “संदली” यह सुन कर जानकी कुछ सोच में पड़ गई।
जानकी अब की बार कुश के पास करीब तीन महीने रह कर अपने घर लौटी थी। ट्रेन लेट हो जाने की वजह से उसे घर पहुँचने में काफी देर हो गयी। संदली और कनिका सो गये होंगे, यही सोच कर वह उनसे मिलने नहीं गयी। सुबह उसकी आँख देर से खुली। उसने सबसे पहले बाहर जा कर देखा। संदली के घर पर ताला लगा था। संदली कॉलेज व कनिका दफ्तर के लिए निकल गये होंगे, यही सोच कर वह घर के कामों में व्यस्त हो गयी। शाम को जब वह सो कर उठी तो उसने एक बार फिर संदली के घर पर नजर डाली। ताला अब भी लगा था। अब तक तो संदली कॉलेज से वापस भी आ गयी होगी, यह सोच कर उसे कुछ फिक्र होने लगी। उसने अन्दर जा कर चाय पी और सोसाइटी के पार्क में टहलने के लिए निकल गई।
Inspiring Story in Hindi with Moral
पार्क पहुँच कर जानकी ने देखा दूर बैंच पर संदली गुमसुम बैठी थी। उसे कुछ अजीब लगा कि संदली कॉलेज से वापस आ कर भी उससे मिलने नहीं आई। जानकी ने सोचा कि इस बार समय अधिक लगने की वजह से संदली कुछ ज्यादा ही नाराज़ है। वह तेजी से चल कर उसके पास गई और वहीं बैंच पर बैठ गयी। उसने संदली की तरफ प्यार से देखते हुए कहा, “नाराज़ हो? अब की बार बहुत समय लग गया न?” इससे पहले की जानकी आगे कुछ कहती, संदली बोली “नहीं आन्टी, मैं समझती हूँ।” संदली के मुँह से आन्टी सुन कर जानकी चौंक गई। शुरू से संदली उसे जानकी कहती थी। कनिका कई बार उसे टोकती पर संदली का जवाब होता, “ठीक है जानकी नहीं तो, जानू कहूँगी।” संदली सबको इज़्ज़त देने वाली और सबसे प्यार करने वाली लड़की थी। कामवाली बाई को मौसी और सोसाइटी के गार्ड को गार्ड भय्या कह कर बुलाती पर जानकी के साथ उसका एक अलग ही रिश्ता था।
जानकी को संदली में एक परिवर्तन महसूस हो रहा था। हर समय हँसने-बोलने वाली संदली ने न तो हर बार की तरह भाग कर जानकी को गले लगाया और न ही लड़ाई की, “जानकी, तुम इतने दिन लगा कर क्यों आयीं। तुम जानती हो न तुम्हारे बिना मेरा मन नहीं लगता।” जानकी उसे तीन साल की उम्र से जानती थी। वह समझ गयी कि यह संदली की नाराज़गी नहीं कुछ और ही है। उसने संदली का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, “क्या बात है? कुछ तो है जो तुम मुझे नहीं बता रहीं।” संदली की आँखें डबडबा गयीं। उसने जानकी का हाथ कस कर पकड़ा और उसे घर के अन्दर ले आयी। उसने दरवाज़ा बन्द कर लिया और जानकी के गले लग कर रो पड़ी। जानकी अन्दर तक काँप उठी। उसने आज पहली बार संदली को रोते हुए देखा था। वह समझ गयी कि ज़रूर कुछ बड़ा हुआ है।
थोड़ी देर बाद संदली शांत हो गयी। उसने जानकी से कहा “एक हफ्ते पहले मेरे कॉलेज में संगीत समारोह था। हर लड़की को एक-एक पास मिला था। जिससे वह किसी अपने को समारोह में बुला सके। उन पास का फायदा उठा कर कुछ बाहर के लड़के भी कॉलेज प्रांगण में आ गये। कार्यक्रम के बीच मुझे बाथरूम जाना था। मैंने अपनी दोस्तों से साथ चलने को कहा, पर कोई भी कार्यक्रम छोड़ कर जाने को तैयार नहीं हुआ। मेरा जाना जरूरी था और बाथरूम पास में ही था, इसलिए मैं चली गई। जब मैं महिला-प्रसाधन में पहुँची तो दो-तीन लड़के वहाँ खड़े शराब पी रहे थे। मैं उन्हें देखकर वापस जाने लगी। उनमें से एक लड़के ने कहा “हम जा ही रहे थे।” उनके जाने के बाद मैं बाथरूम चली गयी। जब मैं बाहर निकली तो उनमें से एक लड़का बाथरूम का मुख्य दरवाज़ा बन्द करके उसके सहारे खड़ा था। मैं उसे देख कर घबरा गई। मैंंने उसे हटने को कहा तो उसने मुझे पकड़ लिया और फिर मेरे साथ ज़बरदस्ती….. ” कह कर संदली जोर-जोर से रोने लगी। रोते-रोते वह कह रही थी, “मैं मदद के लिए चिल्ला रही थी पर संगीत की आवाज़ बहुत तेज होने की वजह से किसी को भी मेरी चीखें सुनाई नहीं पड़ी।”
संदली जानकी की गोद में सर रख कर न जाने कब तक रोती रही। कनिका ने लौट कर जानकी को बताया, “हमने पुलिस में रिपोर्ट तो उसी दिन लिखवा दी थी, पर अभी तक कुछ हुआ नहीं है। काँलेज की प्रधानाचार्या पुलिस के साथ सहयोग नहीं कर रही हैं। मैं कई बार थाने और काँलेज के चक्कर लगा चुकी हूँ। प्रधानाचार्या मुझसे मिलने को तैयार ही नहीं हैं। आज सुबह भी मैं वही जाने के लिए जल्दी निकल गई थी। आप सो रहीं थीं, इसलिए जगाया नहीं।” जानकी ने उन दोनों से कहा, “तुम लोग चिन्ता मत करो। मैं तुम लोगों के साथ हूँ। हम यह लड़ाई मिल कर लड़ेंगे।”
अगले दिन सुबह जानकी अपनी चचेरी बहन के घर गयी। उसके पति पुलिस विभाग में उच्च पद पर थे। उनसे मिल कर जानकी ने उनकी मदद माँगी। जानकी ने उनसे कहा, “आपको मेरी मदद करनी ही होगी। संदली मेरी पड़ोसी नहीं, मेरी बेटी है। जितनी देर वह अपनी माँ के साथ रहती है, उससे कहीं ज्यादा वह मेरे साथ रहती है।”
पुलिस के काम में तेजी आई। उन्होंने प्रधानाचार्या पर दवाब डाला और जल्द ही अपराधी पकड़ा गया। जानकी ने अपने बहनोई की मदद से शहर के एक नामी वकील का इंतजाम कर लिया। उसने संदली और कनिका का हर तरह से साथ दिया। वकील से मिलना हो या कोर्ट की तारीख, जानकी हमेशा उन लोगों के साथ होती और उनका हौसला बढ़ाती।
जानकी का काम अभी खत्म नहीं हुआ था। उसने संदली को अपनी पढ़ाई पूरी करने को कहा। संदली ने यह कह कर मना कर दिया, “मुझ में उस कॉलेज में दोबारा जाने की हिम्मत नही है।” जानकी ने उसे समझाया, “संदली तुम एक बहादुर सैनिक की बेटी हो जिसने सरहद पर अपने देश के लिए जान दी। तुम उस मॉ की बेटी हो जिसने कम उम्र में अपने पति को खोने के बाद अकेले इस दुनिया का सामना किया और अपने दम पर तुम को पाल कर बड़ा किया। इसके ससुराल और मायके दोनों पक्षों ने कभी एक फोन तक नहीं किया। तुम्हारे माँ-पापा ने उन लोगों की मर्जी के विरुद्ध शादी की थी। उस बात की नाराज़गी यह आज तक झेल रही है। तुम ऐसे घबरा कर घर नहीं बैठ सकती।” संदली को जानकी की बातों से हिम्मत मिली और उसने दोबारा कॉलेज जाना शुरू कर दिया। कुछ लोगों ने सहानुभूति दिखाने की कोशिश की और कुछ ने आलोचना की। संदली पर दोनों ही बातों का असर नहीं पड़ा। पढ़ाई के साथ-साथ केस भी चलता रहा। लोकल अखबारों में केस की ख़बरें छपती। सड़क चलते लोग भद्दे ताने कसते, पर वह उन्हे अनसुना कर देती। अब मॉ-पापा और जानकी उसकी ताकत थे। एम.एस.सी की परीक्षायें पूरी होते ही संदली ने पी.एच.डी. में दाखिले के लिए फार्म भर दिया।
संदली को पी.एच.डी. में दाख़िला मिल गया। बहुत दिनों बाद कोई अच्छी खबर आयी थी। संदली ने खुश हो कर कनिका और जानकी को गले लगा लिया। सभी की आँखों में खुशी के आँसू थे। संदली अब तक अपने साथ हुए उस हादसे से काफी हद तक बाहर आ गई थी। जानकी ने मौका देख कर कनिका से संदली का हाथ माँग लिया, “इस खुशी के मौके पर मैं तुम से कुछ माँगना चाहती हूँ। तुम्हें मना करने की पूरी आजादी है। मैं संदली को अपने घर की बहू बनाना चाहती हूँ। यदि तुम दोनों कुश को इस रूप में स्वीकार करो।” दोनों ने एक साथ कहा “यह नहींं हो सकता। आप सब कुछ जानती हैं। कुश कभी भी इस बात को स्वीकार नहीं करेगा।” जानकी ने उन दोनों को पूरी बात बता दी कि वह क्यों आज तक चाह कर भी उन दोनों से यह कहने की हिम्मत नहीं कर पायी। उसने कहा, “कुश ने अबकी बार मुझसे संदली के लिए कहा था, पर जब मैं यहाँ आयी तो सभी लोग किसी और उलझन में उलझ गये। अब सब ठीक है तो मैं हिम्मत कर के कह रही हूँ। इस हादसे के अलावा कोई भी और कारण है तो तुम लोगों को मना करने का पूरा हक है।” संदली ने गंभीर होते हुए कहा, “जानकी, कुश ने तुमसे इस हादसे से पहले कहा था। अब सब कुछ बदल गया है।” जानकी ने प्यार से उसके बालों में हाथ फिराते हुए कहा “संदली, कुश सब जानते हुए भी रोज मुझसे पूछता है कि आप ने उन लोगों से बात की? यदि तुम लोगों को यह प्रस्ताव स्वीकार है तो कुछ और मत सोचो। मैं और कुश तुम्हें पूरे मन से अपने घर की बहू बनायेंगे।”
Inspiring Story in Hindi with Moral
संदली और कनिका बहुत देर तक अपने तर्क देते रहे और जानकी अपने। आखिर में जीत जानकी की हुई। संदली जानकी के घर की बहू बनी। कोर्ट में केस और कॉलेज में रिसर्च दोनों साथ-साथ चलते रहे। जानकी और कुश दोनों ने संदली का साथ दिया। घटना के छ: साल बाद संदली को न्याय मिला और साथ ही डाक्ट्रेट की डिग्री भी। अब वह संदली शर्मा से डा. संदली प्रसाद हो गयी थी। प्रसाद? भगवान जी वाला? पर उसके लिए आज भी जानकी, जानकी ही थी। दोनों का एक अनोखा, अटूट रिश्ता।
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मैंने गणित में एम.एस.सी एवं कम्पयूटर कोर्स किया और कुछ समय तक एक साँफ्टवेयर प्रोग्रामर की तरह कार्यरत रही। मैं पिछले पाँच सालों से कहानियाँ व लेख लिख रही हूँ। मेरी दो किताबें, एक नई सुबह (10 लघु कहानियों का संग्रह) और बोझ (एक लघु उपन्यास) प्रकाशित हो चुकी हैं। दोनों ही किताबें Amazon व Flipkart पर उपलब्ध हैं। कुछ कहानियाँ और लेख आँन लाइन व पत्रिकाओं में भी छपी हैं। लगभग एक साल से मैं इस वेब साइट से जुड़ी हुई हूँ और मेरी कई कहानियाँ यहाँ छपी हैं। आप सभी से प्रोत्साहन की आशा करती हूँ।
हदशा स्टोरी वाकई में बहुत दिलचस्प है आप बहुत ही उम्दा रचना करते हो धन्यवाद।
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जय जिनेंद्र, कहानी बहुत से भी ज्यादा अच्छी है। ऐसे ही लिखते रहे। किसी सफल व्यापारी, सफल व्यक्ति, असफल व्यापारी, असफल व्यक्ति पर कहानी लिखें।