वेदना (भाग1) Hindi Story by Nidhi Jain
प्रिय पाठकों,
अभी तक आपने मेरी लगभग 25 लघु कहानियाँ पढ़ी हैं। आपके सहयोग व प्रोत्साहन के लिए मैं दिल से आप सभी की आभारी हूँ। इस बार मैंने कुछ अलग करने का प्रयास किया है। मैं अपनी नयी कहानी वेदना, आप के समक्ष तीन भागों में प्रस्तुत करूँगी। आशा हैं यह कहानी अंत तक आप में एक उत्सुकता बनाये रखेगी और आप सभी इसे अपना समर्थन प्रदान करेंगे।
वेदना (भाग1)
-निधि जैन
मैं द्रौपदी, द्वापर युग की नहीं, इस कलियुग की द्रौपदी, उतनी ही बेबस और लाचार, जितनी हस्तिनापुर के राज्य सभा में खड़ी वह द्रौपदी थी। जो दुशासन ने किया, वह अत्यंत दुखद था, परन्तु उससे कहीं ज्यादा कष्टप्रद था अपनों से भरी सभा में असहाय खड़ी द्रौपदी की रक्षा करने वाला कोई नहीं था। उस सभा में उपस्थित थे आँखें झुकाये भीष्म पितामह, मुँह फेरे विदुर, गर्दन दायें-बायें घुमाते धृतराष्ट्र और अपनी-अपनी कलाओ में निपुण पाँच पाण्डव। उन पाँच पाण्डवों में से एक था अत्यधिक बलशाली, दूसरा सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी, तीसरा महान तलवारबाज, चौथा महाज्ञानी और पाँचवां धर्मपरायण।
हमारे समाज के अनुसार स्त्री की रक्षा का दायित्व विवाह से पहले उसके पिता व भाई का होता है और शादी के बाद उसके पति का। द्रौपदी के पाँच शूरवीर पति उस सभा में हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे और नीच दुशासन उसका चीरहरण करता रहा। शायद युधिष्ठिर का धर्म उसे अपनी पत्नी की अस्मिता बचाने की अनुमति नहीं दे पाया।
महाभारत की द्रौपदी और मेरा केवल नाम ही एक नहीं था, परन्तु नसीब भी एक समान था। उस द्रौपदी के जीवन में रिश्तों की कोई कमी नहीं थी, पिता द्रुपद, भाई धृष्टद्युम्न और शिखंडी, पितामह भीष्म, ससुर समान विदुर व धृतराष्ट्र और पाँच पति। सब एक से एक पराक्रमी व महान योद्धा। मेरी जिन्दगी में भी रिश्तों की कोई कमी न थी। उसकी तरह मेरे पाँच पति तो नहीं थे, परन्तु मेरी जिन्दगी में पाँच ऐसे पुरुष थे जो सिर्फ मेरे प्रियजन ही नहीं मेरे जीवन के स्तंभ थे। जिस तरह जीवन के संकटपूर्ण समय में उस द्रौपदी का साथ उसके अपनों ने छोड़ दिया था, वैसे ही मेरे प्रियजनों ने भी इस नाजुक मोड़ पर मुझसे मुँह फेर लिया है। आज जब मुझे उनकी सबसे ज्यादा जरूरत है, तब उनमें से एक भी मेरी मदद के लिए आगे नहीं आ रहा है। मैं इस सुनसान अंधेरी सड़क पर अकेली अपनी मौत का इंतजार कर रही हूँ।
मेरे जीवन के पहले पुरुष थे मेरे पिता, एक शराबी, जुआरी और अव्वल नम्बर के सट्टेबाज। वह दिन-भर घर पर दोस्तों के साथ ताश खेलते, दारू पीते, टी.वी. पर क्रिकेट मैच देखते और मैच के दौरान मोबाइल पर कुछ आँकड़े बोलते। कई बार माँ हिम्मत कर के उन्हें नौकरी ढूंढने को कहती, तो वह गुस्से में आँखें लाल कर के कहते, “मुझ आरोपी को नौकरी कौन देगा?” माँ सहम कर खामोश हो जाती। उसने कुछ लोगों से कहकर पापा को काम दिलवाया भी, पर वह अपनी आदतों के कारण उसे निभा नहीं पाये।
माँ एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से थी। नाना जी सरकारी विभाग में क्लर्क थे। वह चाहते तो फाइलें यहाँ से वहाँ पहुँचाने में ही अच्छी कमाई कर सकते थे, पर ईमानदारी उन्हें विरासत में मिली थी। माँ देखने में वह बहुत ही खूबसूरत थी। लम्बी, पतली, रंग गोरा, नाक-नक़्श बिलकुल सधे हुए, बाल लम्बे-काले। जब वह चलती तो उसकी लम्बी चोटी नागिन सी बल खाती। नाना जी ने उसे पढ़ा लिख कर काबिल बनाया। परन्तु जब उन्होंने माँ लिए लड़का देखना शुरू किया, तब न तो उसका रूप काम आया न गुण। सभी जगह बात दहेज पर अटक जाती। सभी को नाना की हैसियत से कई गुना ज्यादा दहेज चाहिए था। नाना चाह कर भी अपनी लाड़ली के लिए कुछ नहीं कर पा रहे थे। धीरे-धीरे सभी साथ की और कुछ तो माँ से कई-कई साल छोटी लड़कियों की शादियाँ हो गयीं। बेटी की शादी को ले कर नाना बहुत ज्यादा मानसिक दबाव में थे। माँ ने भौतिक विज्ञान में एम.एस.सी किया था। वह अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए पी.एच.डी करना चाहती थी। नानी का मानना था कि लड़की कितनी भी गुणवान या रूपवान हो, अच्छे दहेज के बिना उसका विवाह संभव नहीं है। यदि ज्यादा पढ़-लिख गई तो लड़का मिलना और मुश्किल होगा। नाना-नानी दोनों को ही माँ की शादी की चिन्ता थी, पर नाना खामोश रह कर अंदर ही अंदर परेशान रहते और नानी रात-दिन नाना और माँ पर अपनी भड़ास निकालती। माँ ने नानी की खुशी का ध्यान रखते हुए पी.एच.डी न करके बी.एड. कर लिया और एक स्कूल में बड़ी कक्षाओं को भौतिक विज्ञान पढ़ाने लगी।
नाना की चिन्ता देखते हुए उनके एक मित्र ने अपने भतीजे यज्ञसेन से रिश्ते का प्रस्ताव रखा। यज्ञसेन का कद छोटा, रंग काला और चेहरे पर गहरे-गहरे दाग थे। नाना ने अपनी चाँद सी बेटी के लिए इस रिश्ते से साफ मना कर दिया। नाना के दोस्त ने उन्हें समझाया, “लड़के का रंग-रूप नहीं, गुण देखो। इतनी अच्छी सरकारी नौकरी में है। अच्छा वेतन मिलता है और ऊपरी कमाई भी है। तुम्हारी बेटी सुख से रहेगी। जैसा लड़का तुम चाहते हो वह तुम्हारी हैसियत के बाहर है।” सब सोच-समझ कर नाना ने हाँ कर दी। माँ ने शादी के लिए अनिच्छा से स्वीकृति दे दी परन्तु विवाह के उपरान्त उन्होंने पापा को पूरे मन से स्वीकार किया।
शादी के बाद माँ-पापा गाजियाबाद स्थित पापा के पुश्तैनी घर में रहने लगे। वह घर बहुत वैभवपूर्ण तो नहीं था पर माँ को किसी चीज़ की कमी भी न थी। आयताकार आकृति में बने इस घर के मध्य में एक बड़ा आंगन था। जिस कारण घर के सभी हिस्सों में भरपूर हवा, रोशनी और जाड़ों में धूप आती थी। आंगन के चारों ओर बैठक, सोने का कमरा, रसोई घर, भंडार गृह, खाना खाने का स्थान, शौच व स्नान गृह थे। दोनों ही कमरे काफी बड़े आकार के थे। कमरे की तीन दीवारों पर लकड़ी की बड़ी-बड़ी अलमारियाँ बनी थीं । बाहर बरामदे में एक लोहे का खिसकाने वाला चैनल गेट लगा था, जो सुबह खोल दिया जाता था और देर रात ही बंद किया जाता था। बरामदे में दो दरवाजे थे। एक बैठक में जाता था और दूसरा गलियारे में। वह गलियारा अंदर आंगन में खुलता था। माँ ने अपनी सूझ-बूझ से उस घर को सजाया था।
पापा रंग-रूप में जैसे भी थे, पर स्वभाव से बहुत ही सरल, सज्जन व संवेदना पूर्ण थे। माँ के साथ उनका ताल-मेल अच्छा बैठ गया। साल भर बाद मैं उनकी जिन्दगी में आ गई। मैं उन दोनों के लाड़-प्यार में बड़ी होने लगी। पापा का मुझ से विशेष लगाव था। वह मेरी हर फरमाइश पूरी करते। अगर माँ कभी किसी चीज़ के लिए मना करती या डांटती तो वह माँ को भी अनसुना कर देते।
खुशियों से भरा समय तेजी से बीत रहा था। मैं छ: साल की थी, हमारे घर एक नन्हा मेहमान आने वाला था। हर रोज़ पापा दफ्तर से निश्चित समय पर घर आ जाते थे, एक शाम नहीं आये। माँ चिंतित हो कर बार-बार पापा को फोन मिलाती रही पर फोन उठ नहीं रहा था। देर रात पापा शराब के नशे में धुत्त लौटे। जो आदमी शराब की एक बूंद भी नहीं लेता था उसे इस हालत में देख कर माँ घबरा गई। पापा बात करने की स्थिति में नहीं थे, इसलिए माँ ने भी कोई सवाल-जवाब नहीं किया। अगले दिन पता चला कि पापा पर ड्रग्स की तस्करी में, अपराधियों का साथ देने का इल्जाम लगा था। माँ ने शादी के वचनों को निभाते हुए पापा का पूरा साथ दिया। उनका हौसला बढ़ाने के साथ-साथ घर का आर्थिक भार भी अपने ऊपर ले लिया। लम्बे समय तक मुकदमा चलता रहा। पापा कहते रहे कि वह निर्दोष हैं, पर सब कुछ पापा के खिलाफ था। पापा टूटते गये और माँ पारिवारिक बोझ में डूबती गई। वह मनहूस दिन था और आज का दिन, पापा शराब में डूबे तो कभी निकले ही नहीं। मैं विश्वास से आज भी नहीं कह सकती कि पापा निर्दोष थे या दोषी पर उस घटना ने हम सब की जिन्दगी हमेशा के लिए बदल दी।
उस अशुभ घड़ी के बाद कुछ अच्छा भी हुआ। हमारे घर आया एक नन्हा शहजादा, मेरा भाई अभीत। वह था मेरे जीवन का दूसरा पुरुष। घर में हर समय एक तनाव का माहौल रहने लगा था। भाई के आ जाने से मैं कुछ हद तक इस वातावरण से दूर हो गई थी। स्कूल से आ कर मैं पूरा वक्त भाई के पास ही व्यतीत करती। कहीं हर समय एक भय रहता था कि पापा जिस तरह बात-बात पर माँ पर हाथ उठाते हैं, वैसे ही कही भाई के साथ भी न करें। पापा बहुत बदल गए थे। वह एक कमजोर व्यक्ति थे। जिन्दगी में आये तूफान का मुकाबला करने के बजाये शराब में डूब गये। उनकी एक गलत आदत ने उनकी सारी अच्छाइयों को खत्म कर दिया था। वह एक संवेदनशील इंसान से संगदिल व्यक्ति बन गये थे।
माँ का आधा दिन स्कूल में गुजरता, बाकी बचा समय घर के कामों में और मेरा भविष्य सँवारने में निकल जाता। मेरे नाक-नक़्श व कद-काठी माँ पर थे पर रंग अपने पिता पर था। माँ को इस बात का अहसास था कि वह गुण व रूप की स्वामिनी थी, इसके बावजूद भी उसके विवाह में दहेज के कारण कितनी रूकावटें आयी। फिर मैं तो रंग में उससे पीछे रह गयी थी। पापा का यदि यही रवैया रहा तो वह दहेज देने में भी असमर्थ होगी, इसलिए वह मुझे पढ़ाई के साथ-साथ सभी कार्यों में निपुण बनाना चाहती थी। अपने प्रति उसका सख्त व्यवहार मुझे पसंद नहीं था। पापा मेरा उदास चेहरा देख कर माँ को डाँटते और कभी-कभी हाथ भी उठाते। मुझे लगता पापा मुझे प्यार करते है, माँ नहीं।
समय बीत रहा था पर बदल नहीं रहा था। दिन पर दिन घर के हालात खराब होते जा रहे थे। पापा ने कुछ जोड़-तोड़ करके अपने को कोर्ट से बरी तो करवा लिया, पर उन्हें अपनी नौकरी से हमेशा के लिए हाथ धोना पड़ा। जिसका असर पापा से ज्यादा माँ पर पड़ा। उनका वेतन चार लोगों के भरण-पोषण, स्कूल की फीस और पापा की शराब का खर्चा, जिसे वह जोर-जबरदस्ती कर माँ से ले लेते थे, के लिए पर्याप्त नहीं था। धीरे-धीरे घर का गैर जरूरी सामान और फिर जरूरी भी बिकने लगा।
मैं और भाई बड़े हो रहे थे। भाई को रंग-रूप, कद-काठी सभी माँ से मिला था। छोटी उम्र से ही उसका ज्यादातर समय पढ़ाई में निकल जाता और बचे समय में वह माँ की मदद करता, जैसे- बाजार से सामान लाना, माँ के बीमार होने पर डाक्टर के यहाँ ले जाना, उसे समय से दवा देना और छोटे बच्चों को पढ़ा कर पैसो से माँ की मदद करना। माँ से उसे सहानुभूति और प्यार दोनों ही थे। उसका लगाव हम सब में सबसे ज्यादा माँ से था। वह शुरू से ही बहुत गम्भीर व शांत स्वभाव का था। सभी से कम बात करना और अपने काम में व्यस्त रहना ही उसकी दिनचर्या थी। पापा से तो वह कभी बात नहीं करता था परन्तु उनके साथ उसने कभी कोई बेअदबी भी नहीं की। जैसे-जैसे मैं बड़ी हो रही थी, माँ के लिए मेरी नापसंदगी कम होती चली गई पर पापा जैसा कोई नहीं था। मैं पापा की लाड़ली थी और पापा मेरे प्रिय। इसका एक बहुत बड़ा कारण भी था…..
यह घटना उस समय की है जब मेरी उम्र करीब बारह वर्ष की थी। एक दिन मेरी तबीयत खराब होने के कारण माँ ने मुझे स्कूल नहीं भेजा। उन्होंने पापा को सख्त हिदायत दी कि वह मेरा ध्यान रखें और आज अपने किसी मित्र को घर पर न बुलायें। पापा कहाँ मानने वाले थे। माँ के जाते ही उन्होंने अपने दोस्तों को बुला लिया। मैं अन्दर कमरे में सो रही थी और बाहर के कमरे में दारू और ताश के दौर चल रहे थे। तभी पापा के एक मित्र बाथरूम जाने के बहाने से अन्दर आए। मेरे कमरे में आ कर वह मेरे पलंग पर बैठ गए। उन्होंने मेरी छाती पर अपना हाथ रखा और धीरे से सहलाने लगे। मैं चौक कर जाग गई और जोर से चिल्ला पड़ी। भाग कर पापा वहाँ आ गये। वह अंकल घबरा कर बोले, “मैं बच्ची का बुखार देख रहा था।” मैंने पापा के गले लगते हुए कहा, “नहीं पापा, यह कुछ और कर रहे थे।” पापा ने मुझे अपने से अलग किया और अपने दोस्त को बुरी तरह मारने लगे। बाकी दोस्तों ने बीच-बचाव किया। पापा ने गुस्से में कहा, “मैं कितने भी नशे में क्यों न हूँ, अपनी बेटी की हिफाज़त और मदद करने की स्थिति में हमेशा रहूँगा।” पापा का वह वाक्य मेरे दिल और दिमाग पर छप गया। उस दिन के बाद पापा ने अपने दोस्तों को कभी घर नहीं बुलाया चाहे मैं घर पर हूँ या नहीं। यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी और मैं जीवन भर उनकी इस बात के लिए ऋणी रही। एक भरोसा हो गया था कि जिन्दगी में जब भी मुझे कोई जरूरत होगी पापा हमेशा मेरे साथ होंगे।
समय बीतता चला जा रहा था और पापा की आदतें दिन पर दिन बद से बदतर होती जा रही थी। इस सब के बावजूद मेरा प्यार उनके लिए कम होने के बजाय बढ़ता जा रहा था, पर एक अंतर आया था, अब मेरे मन में माँ के लिए सहानुभूति थी। पापा अपनी आदतों के कारण कई बार माँ के पर्स से पैसे चुराते। उनको यह करते मैंने स्वयं देखा था और वह जानते थे कि मैंने उन्हें देख लिया है। माँ को हमेशा लगता कि पैसे भाई ने चुराये हैं। माँ का यह डर कि कहीं वह भी पापा की तरह गलत आदतों में न पड़ जाये, उसे भाई के साथ सख्ती करने पर मजबूर कर देता। कभी वह समझा कर, कभी प्यार से, कभी डाँट कर और कभी थप्पड़ लगा कर पूछती। जैसे-जैसे पापा के रुपये चुराने की गतिविधि बढ़ रही थी वैसे-वैसे माँ का गुस्सा भी बढ़ रहा था। अब काम सिर्फ थप्पड़ से नहीं चलता था जो उसके हाथ आता वह उसी से शुरू हो जाती, फिर वह झाड़ू हो या डंडा। मैं सब कुछ जानते हुए भी खामोश रहती पर आश्चर्यजनक यह था कि पापा भी चुप रहते। वह चाहे अपना गुनाह कबूल न भी करते पर माँ को रोक तो सकते थे जैसे वह हमेशा मेरे समर्थन में खड़े होते थे। भाई भी चुपचाप खड़ा सब सहन करता रहता, अपनी सफाई में कुछ भी नहीं कहता। माँ यह क्यों नहीं समझती थी कि जो लड़का छोटी उम्र से ही हर महीने पैसे कमा कर उनके हाथ पर रखता है, वह चोरी नहीं कर सकता। मुझे माँ का गुस्सा, दुख, परेशानी सब समझ आती थी पर मुझ में पापा के विरूद्ध जा कर माँ का साथ देने का साहस नहीं था।
एक दिन जब मैं काँलेज से लौटी तो माँ बिस्तर पर लेटी थी। मैंने उसे कभी इस तरह लेटे नहीं देखा था। बीमार होने पर भी वह स्कूल और घर की जिम्मेदारियाँ पूरी ईमानदारी से निभाती। मैंने माँ के पास जा कर पूछा, “क्या हुआ माँ? आज लेटी कैसे हो?” माँ ने कमजोर आवाज में कहा, “आज तबीयत कुछ ज्यादा ही खराब है। रसोई में खाना रखा है तुम खा लो। जब भाई आ जाये तो पहले उसे मेरे पास भेज देना फिर खाना देना।” मैंने माँ से पूछा, “तुम को भी खाना दे दूँ?” माँ ने गर्दन हिला कर मना कर दिया। माँ की हालत देख मैं कुछ परेशान हो उठी, मैंने कहा, “मैं तुम्हारे लिए चाय बना देती हूँ।” माँ ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे अपने पास बैठा लिया। वह पहले से भी ज्यादा कमजोर आवाज में बोली, “मेरे पास वक्त कम है। तू मेरे पास ही बैठी रह।” यह सुन कर मैं घबरा गई। माँ आँखें बन्द किए बेसुध पड़ी थी पर उसने मेरा हाथ नहीं छोड़ा। वह बार-बार भाई को पूछ रही थी। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ? भाई के आने का इंतजार करूँ या माँ का हाथ छुड़ा कर डाक्टर के पास जाऊँ। हमेशा की तरह पापा घर पर नहीं थे। थोड़ी देर में भाई भी आ गया। वह भी माँ को देख कर घबरा गया। मैंने माँ को हिलाते हुए कहा, “माँ, देखो भाई आ गया।” उसने आँखें खोल कर भाई को देखा और एक फीकी सी मुसकान के साथ कहा, “मैं हमेशा से जानती थी कि वह पैसे तुमने नहीं चुराये हैं। मुझे लगता था कि तुम्हें मार खाता देख तुम्हारे पापा अपना गुनाह कबूलेंगे पर ऐसा नहीं हुआ। उनकी खामोशी मेरे गुस्से पर आग में घी का काम करती रही, पर तू क्यों हमेशा मौन खड़ा मार खाता रहा। कुछ कहा क्यों नहीं?” वह हमेशा की तरह गम्भीर मुद्रा में सर झुकाये खड़ा रहा। माँ ने एक बार फिर कहा, “कुछ तो बोल।” उसने नजरें नीचे किए हुए कहा, “अगर मैं कह देता कि पैसे मैंने नहीं चुरायें तो तुम्हारा शक दीदी पर जाता और तुम इसे मारती। उसे मार खाते मैं नहीं देख सकता था, इसलिए मेरा खामोश रहना ही बेहतर था।” यह सुन कर मुझे अपने आप पर शर्म आ रही थी। मैंने भाग कर उसे गले लगा लिया। मेरी आँखों से पछतावे के आँसू बह चले। माँ ने उसे अपने पास बुलाया और प्यार से उसके सर पर हाथ फिराते हुए कहा, “आज से इसकी शादी होने तक यह तुम्हारी जिम्मेदारी है। दोनों हमेशा एक-दूसरे का ख्याल रखना। तुम्हारे पापा से तो मुझे कोई उम्मीद नहीं। सारी जिन्दगी उनका गुस्सा मैं तुम पर निकालती रही। मुझे माफ कर देना।” माँ हम भाई-बहन को एक-दूसरे के भरोसे छोड़ कर हमेशा के लिए चली गई। उस वक्त मेरी उम्र बीस और भाई की चौदह वर्ष थी। अपनी उम्र से ज्यादा समझदार तो वह पहले ही था पर माँ की मौत ने उसे और परिपक्व बना दिया। मुझे हमेशा यही लगता था कि भाई को मुझसे उस स्तर का लगाव नहीं है जैसा कि मुझे उससे पर आज मुझे यकीन हो गया था कि मुसीबत के समय सिर्फ पापा ही नहीं, मेरा भाई भी हमेशा मेरे साथ होगा।
वासु था मेरे जीवन का तीसरा पुरुष। कौन कहता है कि एक लड़का और एक लड़की कभी सिर्फ दोस्त नहीं हो सकते। मैंने और वासु ने इस कहावत को गलत साबित किया था। मेरी और उसकी पहली मुलाकात कक्षा छ: में हुई थी। वासु का रंग सांवला था पर चेहरे पर एक आकर्षण था साथ ही उसके होंठों पर हमेशा एक मोहनी मुस्कान रहती थी जो उसके व्यक्तित्व को और निखारती थी। वह हमेशा अपनी जेब में माउथ आँर्गन रखता था। खाली समय में अक्सर वह हम सब को नई-नई धुनें बजा कर सुनाता था। उसके पापा सरकारी नौकरी में थे और वह लोग मथुरा से तबादले पर हमारे शहर आए थे। उसने स्कूल खुलने के करीब दस-पन्द्रह दिन बाद आना शुरू किया था। मैं पढ़ाई में काफी अच्छी थी, इसलिए टीचर ने उसे मेरी बैंच पर ही बैठाया था। उनके कहने पर मैंने अपनी कापियाँ उसे काम पूरा करने को दीं थी। काम पूरा करने के बाद उसने मुझे उपहार स्वरूप एक कीमती पैन दिया। पहले तो मैंने लेने से साफ इनकार कर दिया, पर उसके बहुत जोर डालने पर मैंने उसका वह तोहफा स्वीकार कर लिया। आज भी वह पैन मेरे पास है। उस दिन से आज तक वह मेरा इकलौता दोस्त है। हम दोनों ही एक दूसरे के काम आते। मैं उसकी पढ़ाई में मदद करती और जब कभी मैं समय पर अपनी फीस देने में असमर्थ होती तो वह मेरी फीस जमा करवा देता। मेरे मना करने पर वह कहता, “अपनी ट्यूशन फीस समझ कर रख ले।” पढ़ाई में तो वह औसत था पर नाटक करने में अव्वल। शाहरुख़ ख़ान की तरह बाहें फैला कर कहता, “फीस क्या, तेरे लिए तो जान भी हाजिर है। जब चाहे आजमा लेना।”
बी.ए. तक मैं और वासु साथ ही पढ़े, उसके बाद वह एम.बी.ए. करने अमेरिका चला गया। मैं उसके लिए खुश थी, पर मेरा मन यह सोच कर उदास था कि उसके जाने के बाद मेरा क्या होगा। वह मेरी मनोस्थिति समझ गया और मुझे गले लगाते हुए बोला, “परेशान मत हो, मैं कहीं भी रहूँ, तेरी एक आवाज पर दौड़ा चला आऊँगा।” उसका इतना कहना ही मेरे लिए पर्याप्त था। मैं उस पर अपने पापा और भाई से ज्यादा भरोसा करती थी। मुझे यकीन हो गया कि मेरी हर जरूरत पर वह मेरे साथ होगा।
समय अपनी चाल से चलता रहा। दूर रह कर भी वासु हमेशा मेरे संपर्क में रहा। वह मुझ से अपनी सभी बातें साझा करता। वह सब भी जो किसी और से नहीं। उसकी एक विदेशी लड़की रेचल से दोस्ती होना, दोनों का जरूरत से ज्यादा नजदीक आना और फिर शादी का विचार बना लेना। यह सब वह मुझे समय-समय पर बताता रहता था। जब उसने मुझसे कहा कि वह दोनों बिना किसी को बताये वहीं शादी कर रहे हैं, तब मैंने उसे समझाते हुए कहा था, “देख वासु, अंकल-आँटी को बताये बिना शादी मत करना। उन्हें दुख होगा। यह गलत है। माँ-बाप का इतना तो हक बनता है हम पर।” पर उसे डर था कि पहले बता देने से कहीं बात बिगड़ न जाये। पापा के गुस्से के आगे कहीं वह अपने घुटने न टेक दे या फिर माँ के भावपूर्ण संवादों के आगे बेबस न हो जाये। मेरे लाख समझाने के बाद भी उसने वही किया जो उसे करना था। शादी के बाद वह रेचल को ले कर भारत आया। रेचल बहुत ही प्यारी व मिलनसार लड़की थी। हफ्ते भर के अंदर ही उसने अंकल-आँटी का दिल जीत लिया। उन्होंने पूरे रीति-रिवाज के साथ शादी की सभी रस्में करवायीं और फिर एक शानदार दावत के साथ अपनी पुत्र-वधु का स्वागत किया। शादी में मेरी मुलाकात पार्थ से हुई ……………
कौन है यह पार्थ? पार्थ से मेरी यह मुलाकात क्या रूप लेगी? क्या पार्थ ही है मेरे जीवन का चौथा पुरुष?
जानने के लिए पढ़े मेरी कहानी वेदना का दूसरा भाग………
Read More:-
- “अदला-बदली” निधि जैन स्टोरी – Nidhi Jain New Story
- कोरोना के कहर में “घर कि यात्रा” Short Hindi Story
- ‘ग्लानि’ Hindi Story
मैंने गणित में एम.एस.सी एवं कम्पयूटर कोर्स किया और कुछ समय तक एक साँफ्टवेयर प्रोग्रामर की तरह कार्यरत रही। मैं पिछले पाँच सालों से कहानियाँ व लेख लिख रही हूँ। मेरी दो किताबें, एक नई सुबह (10 लघु कहानियों का संग्रह) और बोझ (एक लघु उपन्यास) प्रकाशित हो चुकी हैं। दोनों ही किताबें Amazon व Flipkart पर उपलब्ध हैं। कुछ कहानियाँ और लेख आँन लाइन व पत्रिकाओं में भी छपी हैं। लगभग एक साल से मैं इस वेब साइट से जुड़ी हुई हूँ और मेरी कई कहानियाँ यहाँ छपी हैं। आप सभी से प्रोत्साहन की आशा करती हूँ।
I read a story in Hindi after a very long time ,the story is engrossing and relatable.Got hooked to it ,will read the next parts 👍
Really awesome , waiting eagerly for the next part
रोचक..
आत्मकथा के रूप में अच्छी प्रस्तुति
अगले भाग का इंतजार..!
अति सुन्दर कहानी,, अगला भाग जानने की उत्सुकता हो रही है,,
The characters are well sketched and the story line is crisp….waiting for the second part eagerly